Friday 23 October 2020

ढोल, गवार, क्षुब्ध पशु, रारी , सकल ताड़ना के अधिकारी ।


ढोल,गवार,क्षुब्ध पशु,रारी, सकल ताड़ना के अधिकारी ।

श्रीरामचरितमानस में कहीं नहीं किया गया है शूद्रों और नारी का अपमान ।

'श्रीरामचरितमानस' की कुल 10902 चौपाईयों में से आज तक मात्र 1 ही चौपाई पढ़ने में आ पाई है और वह है भगवान श्री राम का मार्ग रोकने वाले समुद्र द्वारा भय वश किया गया अनुनय का अंश है जो कि सुंदर कांड में 58 वें दोहे की छठी चौपाई है

 "ढोल गँवार शूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी”

इस सन्दर्भ में चित्रकूट में मौजूद तुलसीदास धाम के पीठाधीश्वर और विकलांग विश्वविद्यालय के कुलाधिपति श्री राम भद्राचार्य जी जो नेत्रहीन होने के बावजूद संस्कृत, व्याकरण, सांख्य, न्याय, वेदांत, में 5 से अधिक GOLD Medal जीत चुकें हैं।महाराज का कहना है कि प्रचलित रामचरितमानस में 3 हजार से भी अधिक स्थानों पर अशुद्धियां हैं और इस चौपाई को भी अशुद्ध तरीके से प्रचारित किया जा रहा है।

उनका कथन है कि तुलसी दास जी महाराज खलनायक नहीं थे,आप स्वयं विचार करें यदि तुलसीदास जी की मंशा सच में शूद्रों और नारी को प्रताड़ित करने की ही होती तो क्या रामचरित्र मानस की 10902 चौपाईयों में से वो मात्र 1 चौपाई में ही शूद्रों और नारी को प्रताड़ित करने की ऐसी बात क्यों करते ?

यदि ऐसा ही होता तो भील शबरी के जूठे बेर को भगवान द्वारा खाये जाने का वह चाहते तो लेखन न करते। यदि ऐसा होता तो केवट को गले लगाने का लेखन न करते।

स्वामी जी के अनुसार ये चौपाई सही रूप में - ढोल,गवार, शूद्र,पशु,नारी नहीं है बल्कि यह है।

"ढोल, गवार, क्षुब्ध पशु, रारी”  सकल ताड़ना के अधिकारी”
ढोल = बेसुरा ढोलक 
गवार = गवांर व्यक्ति 
क्षुब्ध पशु = आवारा पशु जो लोगो को कष्ट देते हैं 
रार = कलह करने वाले लोग

चौपाई का सही अर्थ है - कि जिस तरह बेसुरा ढोलक, अनावश्यक ऊल जलूल बोलने वाला गवांर व्यक्ति, आवारा घूम कर लोगों की हानि पहुँचाने वाले (अर्थात क्षुब्ध, दुखी करने वाले) पशु और रार अर्थात कलह करने वाले लोग जिस तरह दण्ड के अधिकारी हैं उसी तरह मैं भी तीन दिन से आपका मार्ग अवरुद्ध करने के कारण दण्ड दिये जाने योग्य हूँ। 

स्वामी राम भद्राचार्य जी जो के अनुसार श्रीरामचरितमानस की मूल चौपाई इस तरह है और इसमें ‘क्षुब्ध' के स्थान पर 'शूद्र' कर दिया और 'रारी' के स्थान पर 'नारी' कर दिया गया है। भ्रमवश या जानबूझ कर गलत तरह से प्रकाशित किया जा रहा है। इसी उद्देश्य के लिये उन्होंने अपने स्वयं के द्वारा शुद्ध की गई अलग रामचरित मानस प्रकाशित कर दी है।

आप सबसे से निवेदन है , इस लेख को अधिक से अधिक share करें। तुलसीदास जी की चौपाई का सही अर्थ लोगो तक पहुंचायें ।

🚩🚩🏹 जय श्री राम 🏹🚩🚩

Tuesday 20 October 2020

नवरात्रों का महत्त्व

 


भारतीय अवधारणा में हिरण्यगर्भ जिसे पाश्चात्य विज्ञान बिग बैंग के रूप में देखता है, से अस्तित्व में आए इस दृष्यादृष्य जगत के सभी प्रपंच चाहे वह जड़ हों या चेतन, सभी निर्विवाद रूप से शक्ति के ही परिणाम हैं। हम सभी का श्वांस-प्रश्वांस प्रणाली, रक्त संचार, हृदय की धड़कन, नाड़ी गति, शरीर संचालन, सोचना समझना, सभी कुछ शक्ति के द्वारा ही संभव होता है। जो कुछ भी पदार्थ के रूप में हैं, उनके साथ-साथ हम सभी पंचतत्वों यानी क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा से बने हैं। उदाहरण के लिए जल में द्रव यानी गीला करने की शक्ति है, अग्नि में दाह यानी जलाने की शक्ति है, वायु में स्पर्श की शक्ति है, मिट्टी में गंध की शक्ति है और आकाश में शब्द की शक्ति है। प्रकाश और ध्वनि में तरंग की शक्ति है। सृष्टि में सृजन की शक्ति है और प्रलय में विसर्जन की शक्ति है। प्राण में जीवन शक्ति है।

आईंस्टीन का इनर्जी-मैटर समीकरण ई = एमसी2 के अनुसार भी संसार के सभी द्रव्य ऊर्जा की संहति के ही परिणाम हैं। यहाँ तक कि पदार्थों का स्वरूप परिवर्तन भी ऊर्जा की विभिन्न गत्यात्मकता से ही संभव होता है। इन सभी क्रियाओं से ऊर्जा न तो खर्च होती है और न ही उसका ह्रास होता है, वह सदैव विद्यमान रहती है। यह सनातन है, यह अक्षत है। इसे न तो पैदा किया जा सकता है और न ही समाप्त किया जा सकता है। हमें जो जड़ प्रतीत होता है, वह भी ऊर्जा के प्रभाव से अपने नाभी की परिधि में विविध वेग से गतिमान है। इन अणुओं का स्वरूप भी प्लाज्मा, क्वाट्र्ज, पार्टिकल्स यानी कणों के गतिक्रम के अनुरूप ही अस्तित्व में आते हैं। यानी गत्यात्मकताओं के इन्हीं आधारों पर ही अणु-परमाणु आदि सूक्ष्म तत्व आपसी संयोजन करके सूर्य, चंद्र तथा पृथिवी जैसे विशाल पिंडों में परिवर्तित होकर आकाश में विचरण करने लगते हैं। ब्रह्मांड में सभी कुछ गतिमान है, स्थिर कुछ भी नहीं। अनंत ब्रह्मांडों वाली ये श्रृंखलाएं प्रकृति के प्रगट स्वरूप के पांच प्रतिशत के क्षेत्र में हैं, 69 प्रतिशत क्षेत्र डार्क इनर्जी का है और 26 प्रतिशत क्षेत्र डार्क मैटर का है।

इसे ऋग्वेद में कहा गया है आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मत्र्यण्च। हिरण्यय़ेन सविता रथेन देवो याति भुवनानि पश्यन।। यह नक्षत्रों से परिपूर्ण ब्रह्मांड की ये अनंत श्रृंखलाएं किसी बल विशेष के प्रभाव से ही निरंतर गतिशील बनी हुई हैं। यह सर्वविदित है कि किसी भी प्रकार की गतिशीलता के लिए एक स्थिर आधार की आवश्यकता होती है। हम यदि चल पाते हैं तो इसलिए कि हमारी तुलना में पृथिवी स्थिर है। इसी प्रकार सृष्टि की गतिशीलता जिस आधार पर क्रियाशील है, उसे ही ऋषियों ने निष्कलंक, निष्क्रिय, शांत, निरंजन, निगूढ़ कहा है। इस अपरिमेय निरंजन निगूढ़ सत्ता में चेतना के प्रभाव से कामना का भाव जागृत होता है, तब उसे साकार करने के लिए मातृत्व गुणों से परिपूर्ण चिन्मयी शक्ति का प्राकट्य होता है। इस तरह आदि शक्ति के तीन स्वरूपों ज्ञान शक्ति, इच्छा शक्ति और क्रिया शक्ति के उपक्रमों से प्रकृति के सत्व, रज और तम तीन गुणों की उत्पत्ति होती है। इन्हें ही उनकी आभा के अनुसार श्वेत, रक्तिम और कृष्ण कहा गया है।

अतिशय शुद्धता की स्थिति में कोई भी निर्माण नहीं हो सकता। जैसे कि 24 कैरेट शुद्ध सोने से आभूषण नहीं बनता, इसके लिए उसमें तांबा या चांदी का मिश्रण करना होता है। इसी प्रकार साम्यावस्था में प्रकृति से सृष्टि से संभव नहीं है। उसकी साम्यावस्था को भंग होकर आपसी मिश्रणों के परिणामस्वरूप उत्पन्न विकृतियों से ही सृष्टि की आकृतियां बनने लगती हैं। इसको ही सांख्य में कहा है – रागविराग योग: सृष्टि। प्रकृति, विकृति और आकृति ये तीन का क्रम होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आदि शक्ति के तीनों रूपों, उनके तीनों गुणों और तीन क्रियात्मक वेगों के परस्पर संघात से समस्त सृष्टि होती है। तीन का तीन में संघात होने से नौ का यौगिक बन जाता है। यही सृष्टि का पहला गर्भ होता है। पदार्थों में निविष्ट इन गुणों को आज का विज्ञान न्यूट्रल, पॉजिटिव और निगेटिव गुणों के रूप में व्याख्यायित करता है। इन गुणों का आपसी गुणों के समिश्रण से उत्पन्न बल के कारण इषत्, स्पंदन तथा चलन नामक तीन प्रारंभिक स्वर उभरते हैं। ये गति के तीन रूप हैं। आधुनिक विज्ञान इन्हें ही, इक्वीलीबिरियम यानी संतुलन, पोटेंशियल यानी स्थिज और काइनेटिक यानी गतिज के नाम से गति या ऊर्जा के तीन मूल स्तरों के रूप में परिभाषित करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आदि शक्ति के तीन रूप, तीन गुण और उनकी तीन क्रियात्मक वेग, इन सभी का योग नौ होता है।

जैसा कि हम देखते और जानते हैं कि जैविक सृष्टि का जन्म मादा के ही कोख से होता है। अत: मूल प्रकृति और उससे प्रसूत त्रिगुणात्मक आधारों जिसके कारण सृष्टि अस्तित्व में आती है, को हमारे मनीषियों ने नारी के रूप में ही स्वीकार किया। इसलिए पौराणिक आख्यानों में शक्ति के क्रियात्मक मूल स्वरूपों को ही सरस्वती, लक्ष्मी और दूर्गा के मानवीय रूपों के माध्यम से उनके गुणों और क्रिया सहित व्यक्त करने का प्रयास किया। हम तीन देवों की भी कल्पना करते हैं – ब्रह्मा विष्णु और महेश जोकि सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता हैं। लेकिन ये तीनों आधार हैं आधेय नहीं। ये शक्तिमान हैं। इनमें से वह शक्ति निकल जाए तो वे कभी विशिष्ट कामों के पालन में असमर्थ हो जाते हैं। शक्ति ही इनमें व्याप्त देवत्व का आधार है। इसलिए देवताओं की आरतियों के अंत में लिखा होता है – जो कोई नर गावे। कहीं भी नारी नहीं लिखा, क्योंकि नारी देवताओं की स्तुति कैसे करेगी, वह तो स्वयं वंदनीया है, देवताओं की भी स्तुत्य है।

समाज के सभी जैवसंबंध स्त्रियों पर ही टिका है। रिश्तों का सारा फैलाव, घर-परिवार की सारी संकल्पना स्त्रियों के कारण ही अस्तित्व में आती है। लेकिन पश्चिम की मानसिकता के भ्रमजाल के कारण स्वयं को केवल आधी आबादी मानने लगी हैं और पुरुषों से प्रतिद्वन्द्विता के चक्कर में पड़ गई हैं। नारी की पुरुष से प्रतिद्वन्द्विता कैसे संभव है, वह तो पुरुष को जन्म देती हैं। वह आधी आबादी नहीं है, वह तो इस समस्त आबादी की जन्मदात्री है। इसलिए माता होना नारी की सार्थकता है और माँ कहलाना उसका सर्वोच्च संबोधन है। बंगाल में हम छोटी-छोटी बच्चियों को भी माँ कह कर बुलाते हैं। हरेक संबंध में माँ लगा कर संबोधित करते हैं, जैसे पीसीमाँ, मासीमाँ, बऊमाँ आदि। इसलिए ऋग्वेद में यह निर्देश पाया जाता है कि श्वसुर बहु को आशीर्वाद दे कि वह दस पुत्रों की माता बने और पति तुम्हारा ग्यारहवाँ पुत्र हो जाए। यह वास्तविकता भी है। विवाह नया हो तो बात अलग होती है, परंतु संतानों के जन्म के बाद स्त्री का ध्यान पति की बजाय संतानों की ओर अधिक होता है और जैसे-जैसे आयु बढ़ती जाती है, स्त्री संतान की भांति ही पति की भी वात्सल्यजनित चिंता करने लगती है।

आदिशक्ति को जगज्जननी क्यों कहा गया, इसे हम ईशावास्योपनिषद के एक मंत्र से मिलता है। पहले मैं यह बता दूँ कि चूंकि वैदिक संकल्पना में ईश्वर अकल्पनीय, निराकार, निगूढ़ है, इसलिए उसकी कोई मूर्ति नहीं हो सकती, उसका आकार नहीं हो सकता। यदि कोई आकार होगा भी तो वह मनुष्य के समझ से परे होगा। हम मन, बुद्धि, कल्पना और ज्ञान के आधार पर सोचते हैं। परंतु ईश्वर तो इन सब से परे है। इसलिए हम उसकी आकृति नहीं गढ़ सकते। यजुर्वेद कहता है कि न तस्य प्रतिमा अस्ति। यह हमारी भारतीय परंपरा में बौद्धों के काल से पूर्व तक जीवंत रहा है। उससे पहले तक हम केवल शिवलिंग, शालीग्राम और पिंडी का पूजन करते थे। देवी के लिए पिंडी, क्योंकि वह गर्भ का स्वरूप है, विष्णु के लिए शालीग्राम, क्योंकि वह आकाशगंगा का स्वरूप है और शिव के लिंग, क्योंकि शिव अग्निसोमात्मक है तो दीपक के लौ के भांति लिंग। दीपक में लौ अग्नि है और तेल सोम। बुद्ध के बाद बौद्धों के तर्ज पर मूर्तियां गढ़ी गईं।

ईशावास्योपनिषद में कहा है पूर्णमिद:…। इसका अर्थ है कि वह भी पूर्ण है और यह जगत् भी पूर्ण है। पूर्ण से पूर्ण प्रकट होता है और फिर भी पूर्ण शेष बच जाता है। पूर्ण से पूर्ण निकल जाए, फिर भी पूर्ण शेष बचे, वही ईश्वर है। यदि नौ पूर्णांक में से नौ पूर्णांक निकल जाए तो शून्य बचना चाहिए, परंतु ऋषि कहता है कि उसमें शून्य नहीं, नौ ही बचेगा। यह एक विशेष घटना है। यह भौतिक स्तर पर संसार में कहीं नहीं घटती है, इसका केवल एक अपवाद है। एक स्त्री गर्भ धारण करती है, संतान को जन्म देती है। जन्म लेने वाली संतान पूर्ण होती है और माँ भी पूर्ण शेष रहती है। इसलिए माँ ईश्वर का ही रूप है। संसार की सभी मादाएं ईश्वर का ही स्वरूप हैं। इसलिए हमने प्रकृति की कारणस्वरूपा त्रयात्मक शक्ति और फिर उसके त्रिगुणात्मक प्रभाव से उत्पन्न प्राकृतिक शक्ति के नौ स्वरूपों को जगज्जननी के श्रद्धात्मक भावों में ही अंगीकार किया। फिर दुर्गा के नौ स्वरूपों में प्रकृति के त्रिगुणात्मक शक्ति को देखा। वे हैं – शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री। ये नौ दुर्गाएं काल और समय के आयाम में नहीं हैं, उससे परे हैं। ये दिव्य शक्तियां हैं, काल और समय के परे हैं। इनका जो विकार निकलता है, वही काल और समय के आयाम में प्रवेश करता है और ऊर्जा का रूप ले लेता है।

इस प्रकार ये नौ दूर्गा, उनके नौ प्रकार और उनके प्रकार की ही काल और समय में नौ ऊर्जाएं हैं। ऊर्जाएं भी नौ ही हैं क्योंकि यह उनका ही विकार है। यह तो भौतिक ऊर्जाओं की बात हुई, अब इन भौतिक ऊर्जाओं के आधार पर सृष्टि की जो आकृति बनती है, वह भी नौ प्रकार की ही है। पहला है, प्लाज्मा, दूसरा है क्वार्क, तीसरा है एंटीक्वार्क, चौथा है पार्टिकल, पाँचवां है एंटी पार्टिकल, छठा है एटम, सातवाँ है मालुक्यूल्स, आठवाँ है मास और उनसे नौवें प्रकार में नाना प्रकार के ग्रह-नक्षत्र। यदि हम जैविक सृष्टि की बात करें तो वहाँ भी नौ प्रकार ही हैं। छह प्रकार के उद्भिज हैं – औषधि, वनस्पति, लता, त्वक्सार, विरुद् और द्रमुक, सातवाँ स्वेदज, आठवाँ अंडज और नौवां जरायुज जिससे मानव पैदा होते हैं। ये नौ प्रकार की सृष्टि होती है।

पृथिवी का स्वरूप भी नौ प्रकार का ही है। पहले यह जल रूप में थी, फिर फेन बनी, फिर कीचड़ (मृद) बना। और सूखने पर शुष्क बनी। फिर पयुष यानी ऊसर बनी। फिर सिक्ता यानी रेत बनी, फिर शर्करा यानी कंकड़ बनी, फिर अश्मा यानी पत्थर बनी और फिर लौह आदि धातु बने। फिर नौवें स्तर पर वनस्पति बनी। इसी प्रकार स्त्री की अवस्थाएं, उनके स्वभाव, नौ गुण, सभी कुछ नौ ही हैं।

इसी प्रकार सभी महत्वपूर्ण संख्याएं भी नौ या उसके गुणक ही हैं। पूर्ण वृत्त 360 अंश और अर्धवृत्त 180 अंश का होता है। नक्षत्र 27 हैं, हरेक के चार चरण हैं, तो कुल चरण 108 होते हैं। कलियुग 432000 वर्ष, इसी क्रम में द्वापर, त्रेता और सत्युग हैं। ये सभी नौ के ही गुणक हैं। चतुर्युगी, कल्प और ब्रह्मा की आयु भी नौ का ही गुणक है। सृष्टि का पूरा काल भी नौ का ही गुणक है। मानव मन में भाव नौ हैं, रस नौ हैं, भक्ति भी नवधा है, रत्न भी नौ हैं, धान्य भी नौ हैं, रंग भी नौ हैं, निधियां भी नौ हैं। इसप्रकार नौ की संख्या का वैज्ञानिक और आध्यात्मिक महत्व है। इसलिए नौ दिनों के नवरात्र मनाने की परंपरा हमारे पूर्वज ऋषियों ने बनायी।

नवरात्र में नया धान्य आता है। सामान्यत: वर्ष में 40 नवरात्र होते हैं, परंतु मुख्य फसलें दो हैं रबी और खरीफ, इसलिए दो नवरात्र महत्वपूर्ण हैं – चैत्र नवरात्र और शारदीय नवरात्र। एक में गेंहू कट कर आता है और एक में चावल कट कर आता है। नये धान्य में ऊष्मा काफी अधिक होती है क्योंकि उसमें धरती की गरमी होती है। इसलिए उस नवधान्य को खाने से पचाना कठिन होता है। इसलिए नौ दिन व्रत रह कर अपनी जठराग्नि अधिक तेज किया जाता है। तब उस धान्य को पचाना सरल हो जाता है। इसमें भी शारदीय नवरात्र अधिक महत्वपूर्ण है। शारदीय नवरात्र से पहले ही गुरू पूर्णिमा, रक्षा बंधन आदि सभी महत्वपूर्ण त्यौहार पड़ते हैं। वर्षा के चौमासे के बाद फिर से गतिविधियां प्रारंभ की जाती हैं, इसलिए शारदीय नवरात्र में शक्ति की आराधना की जाती है।

लेखक :- डॉ ओम प्रकाश पांडेय
(लेखक प्रसिद्ध अंतरिक्षविज्ञानी हैं)

✍🏻साभार - भारतीय धरोहर पत्रिका

नवरात्रि

 


नवरात्रि - सृष्टि निर्माण शून्य (महा-लया, लय = शून्य में मिलना) से ९ क्रम में हुआ है। इसे सृष्टि का ९ सर्ग कहा है। हर सर्ग का निर्माण चक्र एक एक काल-मान है। भागवत पुराण में शून्य को मिला कर १० सर्ग कहा है। निर्माण शान्त स्थिति में होता है, अतः उसे रात्रि कहते हैं। 

देश में जब अव्यवस्था हो तो निर्माण नहीँ हो सकता। इलेक्ट्रॉनिक मशीन में जब शान्ति हो तभी सन्देश जाता है नहीं तो हल्ला (noise) में छिप जाता है। अतः निर्माण १० रात्रि में कहा गया है। पृथ्वी सतह पर जब सूर्य उत्तर की तरफ जाता है, वह दिन है। 

आश्विन मास में दक्षिण दिशा में सूर्य विषुव रेखा को पार कर दक्षिण जाता है। उसमें महालया तथा नवरात्रि मिला कर १० रात्रि में निर्माण होता है।

मनुष्य शरीर का निर्माण भी १० दिन अर्थात् चन्द्रमा की १० परिक्रमा (२७३ पृथ्वी दिन) में होता है। प्रेत शरीर चन्द्रमा सतह पर है, उसका निर्माण पृथ्वी की १० परिक्रमा या १० दिन में होता है। आकाश में निर्माण के सर्ग थे - शून्य, सलिल (बड़े बादल), ब्रह्माण्ड (आकाशगंगा)। उसकी अक्ष परिक्रमा एक दिन है। उस समय तक सूर्य और ग्रह नहीँ बने थे। ग्रह कक्षा बनने के बाद अभी तक आकाशगंगा की ६ परिक्रमा पूरी हुयी है और ७वीं चल रही है जिसे ७वां मन्वन्तर कहते हैं।

(साभार -  श्री अरुण उपाध्याय)

Monday 12 October 2020

तुलसी जी की दो सेवायें ।

 


# तुलसी जी की दो सेवायें हैं ।

प्रथम सेवा - तुलसी की जड़ो में ...प्रतिदिन जल अर्पण करते रहना ! केवल एकादशी को छोड़ कर। 

द्वितीय सेवा - तुलसी की मंजरियों को तोड़कर  तुलसी को पीड़ा मुक्त करते रहना ,
क्योंकि ~ ये मंजरियाँ तुलसी जी को बीमार करके सुखा देती हैं ! जब तक ये मंजरियाँ तुलसी जी के  शीश पर रहती हैं , तब तक तुलसी माता घोर कष्ट पाती हैं !

इन दो सेवाओं को …श्री ठाकुर जी की सेवा से  कम नहीं माना गया है !   

इनमें कुछ सावधानियाँ रखने की आवश्यक्ता है !

जैसे ~    तुलसी दल तोड़ने से पहले तुलसीजी की आज्ञा ले लेनी चाहिए ! सच्चा वैष्णव बिना आज्ञा लिए … तुलसी दल को स्पर्श भी नहीं करता है !

रविवार और द्वादशी के दिन  तुलसी दल को नहीं तोड़ना चाहिए , तथा कभी भी नाखूनों से तुलसी दल को नहीं तोड़ना चाहिए ! 

कारण -- तुलसीजी श्री ठाकुर जी की आज्ञा से केवल इन्ही दो दिनों  विश्राम और निंद्रा लेती हैं ! बाकी के दिनों में वो एक छण के लिए भी सोती नही हैं और ना ही विश्राम लेती हैं ! आठों पहर ठाकुर जी की ही … सेवा में लगी रहती हैं !

न ही एकादशी को जल देना चाहिये क्यो की इस दिन तुलसी महारानी भी ठाकुर जी के लिये निर्जल व्रत रखती हैं । ऐसा करने से महापाप लगता है !

(साभार -  अनजान, व्हाट्सएप से प्राप्त)

॥ राम शब्द की ब्याख्या ॥


।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।

राम करुणा में हैं। राम शान्ति में हैं। राम एकता में हैं। राम प्रगति में हैं। राम शत्रु के चिन्तन में हैं। राम तेरे मन में हैं, राम मेरे मन में हैं। राम तो घट-घट में हैं। राम सत्य हैं। राम सत् चित् आनन्द हैं।

"रमते कणे-कणे इति रामः।"


राशब्दो विश्ववचनो मश्चापीश्वरवाचकः ।

विश्वानामीश्वरो यो हि तेन रामः प्रकीर्त्तितः ॥ 


रमते रमया सार्द्धं तेन रामं विदुर्ब्बुधाः ।

रमाणां रमणस्थानं रामं रामविदो विदुः ॥


रा चेति लक्ष्मीवचनो मश्चापीश्वरवाचकः ।

लक्ष्मीपतिं गतिं रामं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥


नाम्नां सहस्रं दिव्यानां स्मरणे यत् फलं लभेत् ।

तत् फलं लभते नूनं रामोच्चारणमात्रतः ॥


          –ब्रह्मवैवर्तपुराण, 110/18-21 


'राम' शब्द में दो पद निहित हैं । एक  'रा' और दूसरा 'म' । यहाँ 'रा' का अर्थ है– विश्व​, 'म' का अर्थ है– ईश्वर । अतः राम का अर्थ हुआ–  विश्व के ईश्वर ।

उपर्युक्त श्लोकों द्वारा 'राम' शब्द की व्युत्पत्ति की गयी है ।  राम की व्युत्पत्ति है– 'रमया रमते' अर्थात् रमा (सीता) के साथ जो प्रीति रखते हैं, वे ही राम हैं।

एक और व्युत्पत्ति 'राम' शब्द की बतायी गयी है । वह इस प्रकार है – 'रमाणां रमणस्थानं रामः इति' । अर्थात् रमाओं भक्तों का रमणस्थान प्रीति का आश्रय स्थान राम है।

'राम' मे दो शब्द निहित हैं –  'रा' और 'म' । 'रा' का अर्थ है– लक्ष्मी, 'म" का अर्थ है– ईश्वर । तथा च 'राम' का अर्थ हुआ– लक्ष्मीपति । वह लक्ष्मीपति ही हम लोगों के उद्धार की गति हैं इसलिए 'राम' कहा गया है।

'रम्' धातु में 'घञ्' प्रत्यय के योग से 'राम' शब्द निष्पन्न होता है। 'रम्' धातु का अर्थ है– रमण (निवास, विहार) करना।  वे प्राणिमात्र के हृदय में 'रमण' (निवास) करते हैं, इसलिए 'राम' हैं तथा भक्तजन उनमें 'रमण' करते (ध्याननिष्ठ होते) हैं, इसलिए भी वे 'राम' हैं - "रमते कणे-कणे इति रामः"। 'विष्णुसहस्रनाम' पर लिखित अपने भाष्य में आद्य शंकराचार्य ने पद्मपुराण का उदाहरण देते हुए कहा है कि नित्यानन्दस्वरूप भगवान् में योगिजन रमण करते हैं, इसलिए वे 'राम' हैं।

भगवान् विष्णु के हजार नामों के स्मरण से जो फल मिलता है वह फल एक राम नाम के उच्चारण से मिलता है ।

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।

सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने॥


           – श्रीरामरक्षास्तोत्रम्

'राम' शब्द एक अन्य व्युत्पत्ति है – 'रमन्ति इति रामः ।' जो रोम-रोम में रहता है, जो समूचे ब्रह्मांड में रमण करता है वह राम है।

'रमन्ते योगिनः यस्मिन् स रामः।'

अर्थात्  जिसमें योगी लोगों का मन रमण करता है उसी को कहते हैं ‘राम’।

अथवा योगी जिसमें रमण करते हैं, वह राम हैं।

'रमन्ति इति रामः' 

अर्थात् जो रोम-रोम में रहता है, जो समूचे ब्रह्मांड में रमण करता है, वही राम हैं।

'रमन्ते क्रीडन्ते योगिनो यस्मिन् स एव राम:।

अर्थात् जिस परम तत्त्व, परम सत्ता में योगी लोग रमण करते हैं उस तत्त्व या परमसत्ता को ही राम कहा गया है। 

“यस्मिन् रमन्ते मुनयो विद्यायाSज्ञान विप्लवतं गुरु:प्राह रामेति रमणाद्राम इत्यपि !"

–अध्यात्म रामायण बाल का.3/40 

विज्ञान के द्वारा अज्ञान के नष्ट होने पर मुनि जन जिनमे रमण करते हैं अथवा जो अपनी सुन्दरता से भक्तो के चित्त को रमाते (आनन्द करते )हैं उनका नाम गुरु वशिष्ठ ने राम रखा ! “

रमन्ते योगिनो यस्मिन् नित्यानन्दे चिदात्मनि। 

इति राम पदेनाSसौ परब्रह्मभिधीयते।।


रमन्ते योगिनो यस्मिन् रमणं राम एव सः ।

श्रमितानां विरामोऽयं विरामोऽन्यो निरर्थकः ।।

  

–लक्ष्मीनारायणसंहिता , 2/47/15 

व्यास जी ने कहा है –

"आख्यास्यते राम इति बलाधिक्याद्बलं विदु:।"

"रमयन् सुहृदो गुणै:! आख्यास्यते राम इति ।"

–भागवत,  10/8/12

जो अपने सगे सम्बन्धी और मित्रों को अपने गुणों द्वारा अत्यन्त आनन्दित करेगा उसका नाम राम होगा ।

राम इत्यभिरामेण वपुषा तस्य चोदितः। 

नामधेयं गुरुश्चक्रे जगत्प्रथममङ्गलम्॥

–रघुवंशमहाकाव्यम् , 10/67 

अभिरमन्ते जना यस्मिंस्तद् अभिरामं मनोहरं सुन्दरं तेन अभिरामेण वपुषा शरीरेण चोदितः 

प्रेरितः गुरुः पिता राजा दशरथः तस्य नवजातशिशोः पुत्रस्येत्यर्थः 

जगतां लोकानां प्रथमं पूर्वं प्रधानं मङ्गलं कल्याणं शुभमिति जगत्प्रथममङ्गलम्। 

रमन्ते योगिनो यस्मिन् स रामः इति नाम एवेति नामधेयं चक्रे कृतवान्। 

अभिरामत्वमेव रामशब्दप्रवृत्तिनिमित्तमित्यर्थः।

'राम' पूर्ण मन्त्र है

'राम' स्वतः मूलतः अपने आप में पूर्ण मन्त्र है। 'र', 'अ' और 'म', इन तीनों अक्षरों के योग से 'राम' मंत्र बनता है। यही राम रसायन है। 'र' अग्निवाचक है। 'अ' बीज मंत्र है। 'म' का अर्थ है– ज्ञान। यह मन्त्र पापों को जलाता है, किन्तु पुण्य को सुरक्षित रखता है और ज्ञान प्रदान करता है। हम चाहते हैं कि पुण्य सुरक्षित रहें, सिर्फ पापों का नाश हो। 'अ' मन्त्र जोड़ देने से अग्नि केवल पाप कर्मों का दहन कर पाती है और हमारे शुभ और सात्विक कर्मों को सुरक्षित करती है। 'म' का उच्चारण करने से ज्ञान की उत्पत्ति होती है। हमें अपने स्वरूप का भान हो जाता है। इसलिए हम र, अ और म को जोड़कर एक मंत्र बना लेते हैं –राम। 'म' अभीष्ट होने पर भी यदि हम 'र' और 'अ' का उच्चारण नहीं करेंगे तो अभीष्ट की प्राप्ति नहीं होगी। राम सिर्फ एक नाम नहीं अपितु एक मंत्र है, जिसका नित्य स्मरण करने से सभी दु:खों से मुक्ति मिल जाती है।

दो बार ‘‘राम राम’’ बोलने का क्या तात्पर्य है ?

हिन्दी की शब्दावली में ‘र’ सत्ताईसवाँ अक्षर है, ‘आ’ की मात्रा दूसरा और ‘म’ पच्चीसवाँ अक्षर है। अब तीनों अंकों का योग करें तो 27 + 2 + 25 = 54 अर्थात् एक ‘राम’ का योग 54 हुआ, इसी प्रकार दो ‘राम राम’ का कुल योग 108 होगा। हम जब कोई जाप करते हैं तो 108 मनके की माला गिनकर करते हैं।

सिर्फ ‘राम राम’ कह देने से ही पूरी माला का जाप हो जाता है।

(साभार -  अनजान, व्हाट्सएप से प्राप्त)

Tuesday 6 October 2020

शक्तिरूपा देवी के इक्यावन शक्तिपीठ !

जय शिव शक्ति जय श्री महाकाल !
शक्तिरूपा देवी के इक्यावन शक्तिपीठ !

शक्तिपीठ, देवीपीठ या सिद्धपीठ से उन स्थानों का ज्ञान होता है, जहां शक्तिरूपा देवी का अधिष्ठान (निवास) है।ऐसा माना जाता है कि ये शक्तिपीठ मनुष्य को समस्त सौभाग्य देने वाले हैं। मनुष्यों के कल्याण के लिए जिस प्रकार भगवान शंकर विभिन्न तीर्थों में पाषाणलिंग रूप में आविर्भूत हुए, उसी प्रकार करुणामयी देवी भी भक्तों पर कृपा करने के लिए विभिन्न तीर्थों में पाषाणरूप से शक्तिपीठों के रूप में विराजमान हैं।

दक्षप्रजापति ने सहस्त्रों वर्षों तक तपस्या करके पराम्बा जगदम्बिका को प्रसन्न किया और उनसे अपने यहां पुत्रीरूप में जन्म लेने का वरदान मांगा। पराशक्ति के वरदान से दक्षप्रजापति के घर में दाक्षायणी का जन्म हुआ और उस कन्या का नाम 'सती' पड़ा। उनका विवाह भगवान शिव के साथ हुआ।

एक बार ऋषि दुर्वासा ने पराशक्ति जगदम्बा की आराधना की। देवी ने वरदान के रूप में अपनी दिव्यमाला ऋषि को प्रदान की। उस माला की असाधारण सुगन्ध से मोहित होकर दक्षप्रजापति ने वह हार ऋषि से मांग लिया। दक्षप्रजापति ने वह दिव्यमाला अपने पर्यंक (पलंग) पर रख दी और रात्रि में वहां पत्नी के साथ शयन किया। फलत: दिव्यमाला के तिरस्कार के कारण दक्ष के मन में शिव के प्रति दुर्भाव जागा। इसी कारण दक्षप्रजापति ने अपने यज्ञ में सब देवों को तो निमन्त्रित किया, किन्तु शिव को आमन्त्रित नहीं किया।

सती इस मानसिक पीड़ा के कारण पिता को उचित सलाह देना चाहती थीं, किन्तु निमन्त्रण न मिलने के कारण शिव उन्हें पिता के घर जाने की आज्ञा नहीं दे रहे थे। किसी तरह पति को मनाकर सती यज्ञस्थल पहुंचीं और पिता को समझाने लगीं। पर दक्ष ने दो टूक कहा-'शिव अमंगलस्वरूप हैं। उनके सांनिध्य में तुम भी अमंगला हो गयी हो।'

मया कृतो देवयाग: प्रेतयागो न चैव हि। 
देवानां गमनं यत्र तत्र प्रेतविवर्जित:।। (शिवपुराण)

अर्थात्-मैंने देवयज्ञ किया है, प्रेतयज्ञ नहीं। जहां देवताओं का आवागमन हो वहां प्रेत नहीं जा सकते। तुम्हारे पति भूत, प्रेत, पिशाचों के स्वामी हैं, अत: मैंने उन्हें नहीं बुलाया है।'

महामाया सती ने पिता द्वारा पति का अपमान होने पर उस पिता से सम्बद्ध शरीर को त्याग देना ही उचित समझा। प्राणी की तपस्या एवं आराधना से ही उसे शक्ति को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त होता है किन्तु यदि बीच में अहंकार और प्रमाद उत्पन्न हो जाए तो शक्ति उससे सम्बन्ध तोड़ लेती है। फिर उसकी वही स्थिति होती है जो दक्षप्रजापति की हुई।

पिता के तिरस्कार से क्रोध में सती ने अपने ही समान रूप वाली छायासती को प्रादुर्भूत (प्रकट) किया और अपने चिन्मयस्वरूप को यज्ञ की प्रखर ज्वाला में दग्ध कर दिया। शिवगणों व नारदजी के द्वारा सती के यज्ञाग्नि में प्रवेश के समाचार को जानकर भगवान शंकर कुपित हो गए। उन्होंने अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और पर्वत पर दे मारी जिससे उसके दो टुकड़े हो गए। एक भाग से भद्रकाली और दूसरे से वीरभद्र प्रकट हुए। 

उनके द्वारा यज्ञ का विध्वंस कर दिया गया। सभी देवताओं ने शिव के पास जाकर स्तुति की। आशुतोष शिव स्वयं यज्ञस्थल (कनखल-हरिद्वार) पहुंचे। सारे अमंगलों को दूर कर शिव ने यज्ञ को तो सम्पन्न करा दिया, किन्तु सती के पार्थिव शरीर को देखकर वे उसके मोह में पड़ गए। सती का शरीर यद्यपि मृत हो गया था, किन्तु वह महाशक्ति का निवासस्थान था। अर्धनारीश्वर भगवान शंकर उसी के द्वारा उस महाशक्ति में रत थे। अत: मोहित होने के कारण उस शवशरीर को छोड़ न सके।

भगवान शंकर छायासती के शवशरीर को कभी सिर पर, कभी दांये हाथ में, कभी बांये हाथ में तो कभी कन्धे पर और कभी प्रेम से हृदय से लगाकर अपने चरणों के प्रहार से पृथ्वी को कम्पित करते हुए नृत्य करने लगे-

'ननर्त चरणाघातै: कम्पयन् धरणीतलम्।' 

भगवान शंकर उन्मत्त होकर नृत्य कर रहे थे। शिव के चरणप्रहारों से पीड़ित होकर कच्छप और शेषनाग धरती छोड़ने लगे। शिव के नृत्य करने से प्रचण्ड वायु बहने लगी जिससे वृक्ष व पर्वत कांपने लगे। सर्वत्र प्रलय-सा हाहाकार मच गया। ब्रह्माजी की आज्ञा से ऋषिगण स्वस्तिवाचन करने लगे। देवताओं को चिन्ता हुई कि यह कैसी विपत्ति आ गयी। ये जगत्संहारक रुद्र कैसे शान्त होंगे?

संसार का चक्का जाम जानकर देवताओं और भगवान विष्णु ने महाशक्ति सती के देह को शिव से वियुक्त करना चाहा। भगवान विष्णु ने शिव के मोह की शान्ति एवं अनन्त शक्तियों के निवासस्थान सती के देह के अंगों से लोक का कल्याण हो-यह सोचकर सुदर्शन चक्र द्वारा छायासती के शरीर के खण्ड-खण्ड कर दिए।

भगवान शंकर ने विष्णुजी को शाप देते हुए कहा-'त्रेतायुग में विष्णु को पृथ्वी पर सूर्यवंश में जन्म लेना पड़ेगा। जिस प्रकार मुझे छायापत्नी का वियोगी बनना पड़ा, उसी प्रकार राक्षसराज रावण विष्णु की छायापत्नी का हरण करके उन्हें भी वियोगी बनायेगा। विष्णु मेरी ही भांति शोक से व्याकुल होंगे।'

सती के मृत शरीर के विभिन्न अंग और उनमें पहने आभूषण ५१ स्थलों पर गिरे जिससे वे स्थल शक्तिपीठों के रूप में जाने जाते हैं। सती के शरीर के हृदय से ऊपर के भाग के अंग जहां गिरे वहां वैदिक एवं दक्षिणमार्ग की और हृदय से नीचे भाग के अंगों के पतनस्थलों में वाममार्ग की सिद्धि होती है।

'देवीभागवत' में १०८ शक्तिपीठों का वर्णन है। 'तन्त्रचूडामणि' में शक्तिपीठों की संख्या ५२ बतायी गयी है। परन्तु ज्यादातर पुराणों में उनके ५१ शक्तिपीठों की ही मान्यता है। श्रीललितासहस्त्रनाम में उनका एक नाम
'पंचाशत्पीठरूपिणी' है। इससे स्पष्ट है कि पराम्बा जगदम्बा के ५१ शक्तिपीठ ही हैं। इन ५१ शक्तिपीठों में से भारत विभाजन के पश्चात् ५ और कम हो गए। इन ५१ शक्तिपीठों में से १ पीठ पाकिस्तान में, ४ बंगलादेश में, १ श्रीलंका में, १ तिब्बत में और २ नेपाल में है। वर्तमान में भारत में ४२ शक्तिपीठ हैं।

इक्वावन शक्तिपीठों के नाम, अंगनाम, उनकी शक्ति और भैरव का परिचय!

इन शक्तिपीठों का स्थान, वहां की अधिष्ठात्री शक्ति एवं भैरव (शिव) का नाम तथा सती के किस अंग और आभूषण का कहां पतन हुआ और कौन-कौन-से पीठ बने, इसका विवरण इस प्रकार है-

१. किरीट -यहां सती के सिर का आभूषण 'किरीट' गिरा था। यहां कि शक्ति 'विमला, भुवनेशी' कहलाती है और भैरव (शिव) 'संवर्त' नाम से जाने जाते हैं। (प. बंगाल)

२. वृन्दावन -यहां सती के 'केश' गिरे थे। यहां सती 'उमा' और शंकर 'भूतेश' नाम से जाने जाते हैं। (उत्तर प्रदेश, वृन्दावन)

३. करवीर -यहां सती के 'त्रिनेत्र' गिरे थे। यहां सती 'महिषमर्दिनी' और शिव 'क्रोधीश' कहे जाते हैं। (महाराष्ट्र, कोल्हापुर स्थित महालक्ष्मी मन्दिर)

४. श्रीपर्वत -यहां सती की 'दक्षिण कनपटी' गिरी थी। सती यहां 'श्रीसुन्दरी' तथा शिव 'सुन्दरानन्द' कहलाते हैं। (लद्दाख, कश्मीर)

५. वाराणसी -यहां सती की 'कान की मणि' गिरी थी। यहां सती 'विशालाक्षी' तथा शिव 'कालभैरव' कहलाते हैं। (वाराणसी में मीरघाट पर विशालाक्षी मन्दिर)

६. गोदावरीतट -यहां सती का 'वामगण्ड (बायां गाल)' गिरा था। यहां सती को 'विश्वेशी, रुक्मिणी' तथा शिव को 'दण्डपाणि, वत्सनाभ' कहते हैं। (आन्ध्रप्रदेश)

७. शुचि -यहां सती के 'ऊपर के दांत' गिरे थे। यहां सती को 'नारायणी' और शंकर को 'संहार' कहते हैं। (तमिलनाडु, शुचीन्द्रम्)

८. पंचसागर --यहां सती के 'नीचे के दांत' गिरे थे। यहां सती 'वाराही' और शंकर 'महारुद्र' नाम से जाने जाते हैं। इस पीठ के स्थान के बारे में निश्चित पता नहीं है।

९. ज्वालामुखी -यहां सती की 'जिह्वा' गिरी थी। यहां सती 'सिद्धिदा' और शिव 'उन्मत्त' रूप में विराजित हैं। (हिमाचल प्रदेश, कांगड़ा स्थित ज्वालामुखी मन्दिर)

१०. भैरवपर्वत -यहां सती का 'ऊपर का होंठ' गिरा था। यहां सती 'अवन्ती' और शिव 'लम्बकर्ण' कहलाते हैं। (मध्यप्रदेश)

११. अट्टहास -यहां सती का 'नीचे का होंठ' गिरा था। यहां सती 'फुल्लरादेवी' और शिव 'विश्वेश' कहलाते हैं। (बर्दवान, प. बंगाल)

१२. जनस्थान -यहां सती की 'ठुड्डी' गिरी थी। यहां सती 'भ्रामरी' और शिव 'विकृताक्ष' कहलाते हैं। (महाराष्ट्र, नासिक के पास पंचवटी में भद्रकाली मन्दिर)

१३. कश्मीर - यहां सती का 'कण्ठ' गिरा था। यहां सती 'महामाया' तथा शिव 'त्रिसंध्येश्वर' कहलाते हैं। (कश्मीर में अमरनाथ गुफा के भीतर 'हिम' शक्तिपीठ है।)

१४. नन्दीपुर -यहां सती का 'कण्ठहार' गिरा था। यहां सती 'नन्दिनी' और शिव 'नन्दिकेश्वर' कहलाते हैं। (प. बंगाल)

१५. श्रीशैल -यहां सती की 'ग्रीवा' गिरी थी। यहां सती को 'महालक्ष्मी' तथा शिव को 'संवरानन्द', 'ईश्वरानन्द' कहते हैं। (आन्ध्रप्रदेश के मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के प्रांगण में यह शक्तिपीठ है।)

१६. नलहटी -यहां सती की 'उदरनली' गिरी थी। यहां सती 'कालिका' और शिव 'योगीश' कहे जाते हैं। (प. बंगाल)

१७. मिथिला -यहां सती का 'वाम स्कन्ध' गिरा था। यहां शक्ति 'उमा' व 'महादेवी' और शिव 'महोदर' कहलाते हैं। (मिथिला, जनकपुर (नेपाल) और समस्तीपुर तीनों ही स्थानों पर यह शक्तिपीठ माना जाता है। इस सम्बन्ध में एकमत नहीं है।)
 
१८. रत्नावली -यहां सती का 'दक्षिण स्कन्ध' गिरा था। यहा शक्ति 'कुमारी' तथा भगवान शंकर 'शिव' कहलाते हैं। (मद्रास)

१९. प्रभास -यहां सती का 'उदर' गिरा था। यहां सती 'चन्द्रभागा' और शिव 'वक्रतुण्ड' के नाम से जाने जाते हैं। (गुजरात में गिरनार पर्वत पर अम्बाजी का मन्दिर)

२०. जालन्धर -यहां सती का 'बायां स्तन' गिरा था। यहां सती 'त्रिपुरमालिनी' और शिव 'भीषण' नाम से जाने जाते है। (जालन्धर, पंजाब)

२१. रामगिरि -यहां सती का 'दायां स्तन' गिरा था। यहां सती 'शिवानी' और शिव का रूप 'चण्ड' है। (कुछ विद्वान चित्रकूट के शारदा मन्दिर को और कुछ मैहर के शारदा मन्दिर को यह शक्तिपीठ मानते हैं)

२२. वैद्यनाथ -यहां सती का 'हृदय' गिरा था। इसलिए इसे 'हृदयपीठ' या 'हार्दपीठ' भी कहते हैं। पद्मपुराण में कहा गया है-हृदयपीठ के समान शक्तिपीठ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कहीं नहीं है। यहां सती का नाम 'जयदुर्गा' और शिव का 'वैद्यनाथ' है। (बिहार, वैद्यनाथधाम)

२३. वक्त्रेश्वर -यहां सती का 'मन' गिरा था। यहां सती को 'महिषमर्दिनी' और शिव को 'वक्त्रनाथ' कहा जाता है। (प. बंगाल)

२४. कन्यकाश्रम -यहां सती की 'पीठ' गिरी थी। सती को यहां 'शर्वाणी' तथा शिव को 'निमिष' कहा जाता है। (तमिलनाडु में तीन सागरों के संगम-स्थल पर कन्याकुमारी मन्दिर स्थित भद्रकाली मन्दिर ही यह शक्तिपीठ है।)

२५. बहुला -यहां सती का 'बायां हाथ' गिरा था। यहां सती को 'बहुला' तथा शिव को 'भीरुक' कहा जाता है। (प. बंगाल) 

२६. उज्जयिनी -यहां सती की 'कुहनी' गिरी थी। यहां सती का नाम 'मंगलचण्डिका' और शिव का 'मांगल्यकपिलाम्बर' है। (मध्य प्रदेश, उज्जैन, हरसिद्धि मन्दिर)

२७. मणिवेदिक -यहां सती की 'दोनों कलाइयां' गिरी थी। यहां पर शक्ति 'गायत्री' एवं शिव 'सर्वानन्द' कहलाते हैं। (राजस्थान, पुष्कर के पास गायत्री मन्दिर)
 
२८. प्रयाग -यहां सती के 'हाथ की अंगुली' गिरी थी। यहां सती को 'ललितादेवी' एवं शिव को 'भव' कहा जाता है। (तीर्थराज प्रयाग में अक्षयवट के निकट ललितादेवी का मन्दिर तो कुछ विद्वान अलोपी माता के मन्दिर को शक्तिपीठ कहते हैं।)

२९. उत्कल -यहां सती की 'नाभि' गिरी थी। यहां शक्ति 'विमला' और शिव का 'जगत', जगन्नाथ' रूप है। (कुछ विद्वान उड़ीसा में जगन्नाथपुरी मन्दिर में विमलादेवी मन्दिर को और दूसरी मान्यता के अनुसार उड़ीसा में ही याजपुर में विरजादेवी मन्दिर को शक्तिपीठ माना जाता है।)

३०. कांची -यहां सती का 'कंकाल' गिरा था। सती यहां 'देवगर्भा' और शिव का 'रुरु' रूप है। (तमिलनाडु, कांची स्थित काली मन्दिर)

३१. कालमाधव -यहां सती का 'बायां नितम्ब' गिरा था। यहां सती को 'काली' तथा शिव को 'असितांग' कहा जाता है। इस शक्तिपीठ के स्थान के बारे में कुछ उल्लेख नहीं है।

३२. शोण -यहां सती का 'दक्षिण नितम्ब' गिरा था। यहां देवी 'नर्मदा' और 'शोणाक्षी' कहलाती है तथा शिव 'भद्रसेन' कहे जाते हैं। (कुछ विद्वान बिहार के सासाराम में और कुछ अमरकण्टक के नर्मदा मन्दिर को शोण शक्तिपीठ कहते हैं।)

३३. कामगिरि -यहां सती की 'योनि' गिरी थी। यहां सती 'कामाख्या' और शिव 'उमानाथ या उमानन्द' कहलाते हैं। देवीपुराण में सिद्धपीठों में कामरूप को सर्वोत्तम कहा गया है। (असम, कामरूप में नीलाचल पर्वत पर।)

३४. जयन्ती -यहां सती की 'बांयी जंघा' गिरी थी। यहां सती 'जयन्ती' और शिव 'क्रमदीश्वर' कहे जाते हैं। (मेघालय, जयन्तिया पर्वत)

३५. मगध -यहां सती की 'दक्षिण जंघा' गिरी थी। यहां शक्ति 'सर्वानन्दकरी' और शिव 'व्योमकेश' कहलाते हैं। (बिहार, पटना स्थित बड़ी पटनेश्वरी देवी मन्दिर)

३६. त्रिस्रोता -यहां सती का 'बायां पैर' गिरा था। यहां सती का नाम 'भ्रामरी' एवं शिव का नाम 'ईश्वर' है। (प. बंगाल)

३७. त्रिपुरा -यहां सती का 'दायां पैर' गिरा था। यहां देवी 'त्रिपुरसुन्दरी' और शिव 'त्रिपुरेश' कहे जाते हैं। (त्रिपुरा)

३८. विभाष -यहां सती का 'बायां टखना' गिरा था। सती यहां 'कपालिनी और भीमरूपा' और शिव 'सर्वानन्द और कपाली' कहे जाते हैं। (प. बंगाल)

३९. कुरुक्षेत्र -यहां सती का 'दायां टखना' गिरा था। यहां सती 'सावित्री और शिव 'स्थाणु' कहलाते हैं। (हरियाणा)

४०. युगाद्या -यहां सती के 'दांये पैर का अंगूठा' गिरा था। देवी यहां 'भूतधात्री' और शिव 'क्षीरकण्टक, युगाद्य' कहलाते हैं। (प. बंगाल)

४१. विराट -यहां सती के 'दांये पांव की अंगुलियां' गिरी थीं। यहां सती को 'अम्बिका' तथा शिव को 'अमृत' कहा जाता है। (राजस्थान)

४२. कालीपीठ -सती की 'शेष ऊंगलियां' यहां गिरी थी। सती यहां 'कालिका' और शिव 'नकुलीश' कहे जाते हैं। (कलकत्ता, कालीपीठ)

ये ४२ शक्तिपीठ भारत में हैं। इन शक्तिपीठों के अतिरिक्त एक और शक्तिपीठ कर्नाटक में माना जाता है। यहां सती के 'दोनों कर्ण' गिरे थे। यहां सती को 'जयदुर्गा' और शिव को 'अभीरु' कहा जाता है।

विदेशों में शक्तिपीठ

४३. मानस -यहां सती की 'दायीं हथेली' गिरी थी। यहां सती 'दाक्षायणी' और शिव 'अमर' कहलाते हैं। (तिब्बत, मानसरोवर के तट पर)

४४. लंका -यहां सती का 'नूपुर' गिरा था। सती यहां 'इन्द्राक्षी' और शिव 'राक्षसेश्वर' कहलाते हैं। (श्रीलंका)

४५. गण्डकी -यहां सती का 'दाहिना गाल' गिरा था। यहां सती 'गण्डकी' तथा शिव 'चक्रपाणि' कहलाते हैं। (नेपाल)

४६. नेपाल -यहां सती के 'दोनों घुटने' गिरे थे। यहां सती को 'महामाया' तथा शिव को 'कपाल' कहा जाता है। (नेपाल, गुह्येश्वरीदेवी मन्दिर)

४७. हिंगुला -यहां सती का 'ब्रह्मरन्ध्र' गिरा था। यहां सती 'भैरवी, 'कोट्टरी'' और शिव 'भीमलोचन' कहे जाते हैं। (पाकिस्तान, बलूचिस्तान के हिंगलाज में)

४८. सुगन्धा -यहां सती की 'नासिका' गिरी थी। यहां देवी 'सुनन्दा' तथा शंकर 'त्र्यम्बक' कहलाते हैं। (बंगलादेश)

४९. करतोयातट -यहां सती का 'वाम तल्प' गिरा था। सती यहां 'अपर्णा' तथा शिव 'वामन' रूप हैं। (बंगलादेश)

५०. चट्टल -यहां सती की 'दायीं भुजा' गिरी थी। यहां सती को 'भवानी' और शिव को 'चन्द्रशेखर' कहते हैं। (बंगलादेश)

५१. यशोर -यहां सती की 'बांयी हथेली' गिरी थी। यहां सती को 'यशोरेश्वरी' तथा शिव को 'चन्द्र' कहते हैं। (बंगलादेश)

शक्तितत्त्व के द्वारा ही यह समूचा ब्रह्माण्ड संचालित होता है। शक्ति के अभाव में शिव में भी स्पन्दन सम्भव नहीं; क्योंकि शिव का रूप ही अर्धनारीश्वर है। कोई यह नहीं कहता कि वह ब्रह्महीन है या विष्णुहीन है या शिवहीन है अपितु यही कहा जाता है कि शक्तिहीन है। अत: सभी का अस्तित्व सर्वाराध्या, सर्वमंगलकारिणी एवं अविनाशिनी शक्ति के कारण ही है।

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:

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गोपेश्वर महादेव

 

वृन्दावन के गोपेश्वर महादेव 

जय शिव शक्ति जय श्री महाकाल

गोपेश्वर महादेव

भगवान् शिव से बड़ा कोई श्री विष्णु का भक्त नहीं, और भगवान् विष्णु से बड़ा कोई श्री शिव का भक्त नहीं है ! इसलिए भगवान् शिव सबसे बड़े वैष्णव और भगवान विष्णु सबसे बड़े शैव कहलाते हैं !

9 साल के छोटे बाल रूप में जब श्री कृष्ण ने महा रास का उद्घोष किया वृन्दावन में तो पूरे ब्रह्माण्ड के तपस्वी प्राणियों में भयंकर हल चल मच गयी की काश हमें भी इस महा रास में शामिल होने का मौका मिल जाय !

दूर दूर से गोपियाँ जो की पूर्व जन्म में एक से बढ़कर एक ऋषि, मुनि, तपस्वी, योगी, भक्त थीं, महा रास में शामिल होने के लिए आतुरता से दौड़ी आयीं !

महा रास में शामिल होने वालों की योग्यता को परखने की जिम्मेदारी थी श्री ललिता सखी की, जो स्वयं श्री राधा जी की प्राण प्रिय सखी थीं और उन्ही की स्वरूपा भी थीं !

हमेशा एकान्त में रहकर कठोर तपस्या करने वाले भगवान् शिव को जब पता चला की श्री कृष्ण महा रास शुरू करने जा रहें हैं तो वो भी अत्यन्त खुश होकर, तुरन्त अपनी तपस्या छोड़, पहुंचे श्री वृन्दावन धाम और बड़े आराम से सभी गोपियों के साथ रास स्थल में प्रवेश करने लगे !

पर द्वार पर ही उन्हें श्री ललिता सखी ने रोक दिया और बोला की हे महा प्रभु, रास में सम्मिलित होने के लिए स्त्रीत्व जरूरी है ! तो भोलेनाथ ने तुरन्त कहा की ठीक है तो हमें स्त्री बना दो !

तब ललिता सखी ने भोले नाथ का गोपी वेश में श्रृंगार किया और उनके कान में श्री राधा कृष्ण के युगल मन्त्र की दीक्षा दी !

चूँकि भोलेनाथ के सिर की जटा और दाढ़ी मूंछ बड़ी बड़ी थी इसलिए ललिता सखी ने उनके सिर पर बड़ा सा घूँघट डाल दिया जिससे किसी को उनकी दाढ़ी मूंछ दिखायी न दे !

महादेव के अति बलिष्ठ और बेहद लम्बी चौड़ी शरीर की वजह से वो सब गोपियों से एकदम अलग और विचित्र गोपी लग रहे थे जिसकी वजह से हर गोपी उनको बड़े आश्चर्य से देख रही थी !

महा देव को लगा की कहीं श्री कृष्ण उन्हें पहचान ना लें इसलिए वो सारी गोपियों की भीड़ में सबसे पीछे जा कर खड़े हो गए !

अब श्री कृष्ण भी ठहरे मजाकिया स्वाभाव के और उन्हें पता तो चल ही चुका था की स्वयं भोले भण्डारी यहाँ पधार चुके हैं तब उन्होंने विनोद लेने के लिए कहा कि, महा रास सबसे पीछे से शुरू की जायेगी !

इतना सुनते ही भोले नाथ घबराये और घूँघट में ही दौड़ते दौड़ते सबसे आगे आकर खड़े हो गए पर जैसे ही वो आगे आये वैसे ही श्री कृष्ण ने कहा की अब महा रास सबसे आगे से शुरू होगा ! तब महा देव फिर दौड़ कर पीछे पहुचें तो श्री कृष्ण ने फिर कहा रास पीछे से शुरू होगा तब महादेव फिर दौड़ कर आगे आये ! इस तरह कुछ देर तक चलता रहा और बाकी की सारी करोड़ो गोपियाँ खाली आश्चर्य से खड़े होकर श्री कृष्ण और श्री महादेव के बीच की लीला देख रही थी और ये सोच रही थी की ये कौन सी गोपी है जो डील डौल से तो भारी भरकम है पर बार बार गजब शर्मा कर कभी आगे भाग रही है तो कभी पीछे और जैसे लग रहा है श्री कृष्ण भी इसको जानबूझकर हैरान करने के लिए बार बार आगे पीछे का नाम ले रहें हों !

कुछ देर बाद श्री कृष्ण ने कहा कि महा रास सबसे पहले इस चंचल गोपी से शुरू होगा जो स्थिर बैठ ही नहीं रही है और यह कहकर श्री कृष्ण ने भोले नाथ का घूंघट हटा दिया और आनन्द से उद्घोष किया, “आओ गोपेश्वर महादेव ! आपका महा स्वागत है इस महा रास में”

और उसके बाद जो महा उत्सव हुआ की ऋषि महर्षि भी हाथ जोड़कर कहते हैं, नेति नेति ! अर्थात इस महा रास के महा सुख को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता है !

तब से भगवान् शिव गोपेश्वर रूप में ही साक्षात् निवास करते हैं, वृन्दावन के गोपेश्वर महादेव मन्दिर में जहाँ उनका रोज शाम को गोपी रूप में श्रृंगार किया जाता है नित्य रास के लिए !

जब भी वृन्दावन जाईये श्री गोपेश्वर महादेव का जरूर दर्शन करिए !

श्री गोपेश्वर महादेव का दर्शन और इनकी इस कथा का चिन्तन करने से श्री कृष्ण की भक्ति में प्रगाढ़ता आती है और इस कलियुग में भक्ति ही वो सबसे आसान तरीका है जो इस लोक के साथ परलोक में भी सुख प्रदान करती हैं !!

हर हर महादेव

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