Wednesday 27 May 2020

महामृत्युंजय मंत्र ।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, ऋषि मृकण्डु और उनकी पत्नी मरुद्मति ने पुत्र की प्राप्ति के लिए कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उनको दर्शन दिए और उनकी मनोकामना पूर्ति के लिए दो विकल्प दिए। पहला- अल्पायु बुद्धिमान पुत्र दूसरा-दीर्घायु मंदबुद्धि पुत्र।

इस पर ऋषि मृकण्डु ने अल्पायु बुद्धिमान पुत्र की कामना की। जिसके परिणामस्वरूप मार्कण्डेय नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। उनका जीवन काल 16 वर्ष का ही था। वे अपने जीवन के सत्य के बारे में जानकर भगवान शिव की पूजा करने लगे। मार्कण्डेय जब 16 वर्ष के हुए तो यमराज उनके प्राण हरने आए। वे वहां से भागकर काशी पहुंच गए। यमराज ने उनका पीछा नहीं छोड़ा तो मार्कण्डेय काशी से कुछ दूरी पर कैथी नामक गांव में एक मंदिर के शिवलिंग से लिपट गए और भगवान शिव का अह्वान करने लगे।

मार्कण्डेय की पुकार सुनकर देवों के देव महादेव वहां प्रकट हो गए। भगवान शिव के तीसरे नेत्र से महामृत्युंज मंत्र की उत्पत्ति हुई। भगवान शिव ने मार्कण्डेय को अमरता का वरदान दिया, जिसके बाद यमराज वहां से यमलोक लौट गए।

महामृत्युंजय मंत्र के जप व उपासना कई तरीके से होती है। काम्य उपासना के रूप में भी इस मंत्र का जप किया जाता है। जप के लिए अलग-अलग मंत्रों का प्रयोग होता है। मंत्र में दिए अक्षरों की संख्या से इनमें विविधता आती है।

मंत्र निम्न प्रकार से है
एकाक्षरी मंत्र 👉 ‘हौं’ ।
त्र्यक्षरी मंत्र    👉 ‘ॐ जूं सः’।
चतुराक्षरी मंत्र 👉‘ॐ वं जूं सः’।
नवाक्षरी मंत्र   👉 ‘ॐ जूं सः पालय पालय’।
दशाक्षरी मंत्र  👉 ‘ॐ जूं सः मां पालय पालय’।

(स्वयं के लिए इस मंत्र का जप इसी तरह होगा जबकि किसी अन्य व्यक्ति के लिए यह जप किया जा रहा हो तो ‘मां’ के स्थान पर उस व्यक्ति का नाम लेना होगा)

वेदोक्त मंत्र 👉 
महामृत्युंजय का वेदोक्त मंत्र निम्नलिखित है-

ओम त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌ ॥

इस मंत्र में 33 शब्दों का प्रयोग हुआ है और इसी कारण से इसे ‘त्रयस्त्रिशाक्षरी या तैंतीस अक्षरी मंत्र कहते हैं। श्री वशिष्ठजी ने इन 33 शब्दों के 33 देवता अर्थात्‌ शक्तियाँ निश्चित की हैं जो कि निम्नलिखित हैं।

इस मंत्र में 8 वसु, 11 रुद्र, 12 आदित्य 1 प्रजापति तथा 1 वषट को माना है।

मंत्र विचार - इस मंत्र में आए प्रत्येक शब्द को स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि शब्द ही मंत्र है और मंत्र ही शक्ति है। इस मंत्र में आया प्रत्येक शब्द अपने आप में एक संपूर्ण अर्थ लिए हुए होता है और देवादि का बोध कराता है।

शब्द बोधक
‘त्र’ ध्रुव वसु 
‘यम’ अध्वर वसु
‘ब’ सोम वसु 
‘कम्‌’ वरुण
‘य’ वायु 
‘ज’ अग्नि
‘म’ शक्ति 
‘हे’ प्रभास
‘सु’ वीरभद्र 
‘ग’ शम्भु
‘न्धिम’ गिरीश 
‘पु’ अजैक
‘ष्टि’ अहिर्बुध्न्य 
व’ पिनाक
‘र्ध’ भवानी पति 
‘नम्‌’ कापाली
‘उ’ दिकपति 
र्वा’ स्थाणु
‘रु’ भर्ग 
‘क’ धाता
‘मि’ अर्यमा 
‘व’ मित्रादित्य
‘ब’ वरुणादित्य 
‘न्ध’ अंशु
‘नात’ भगादित्य 
‘मृ’ विवस्वान
‘त्यो’ इंद्रादित्य 
‘मु’ पूषादिव्य
‘क्षी’ पर्जन्यादिव्य 
‘य’ त्वष्टा
‘मा’ विष्णुऽदिव्य 
‘मृ’ प्रजापति
‘तात’ वषट

इसमें जो अनेक बोधक बताए गए हैं। ये बोधक देवताओं के नाम हैं।

शब्द वही हैं और उनकी शक्ति निम्न प्रकार से है-

शब्द शक्ति 👉 ‘त्र’ त्र्यम्बक, त्रि-शक्ति तथा त्रिनेत्र ‘य’ यम तथा यज्ञ
‘म’ मंगल ‘ब’ बालार्क तेज
‘कं’ काली का कल्याणकारी बीज ‘य’ यम तथा यज्ञ
‘जा’ जालंधरेश ‘म’ महाशक्ति
‘हे’ हाकिनो ‘सु’ सुगन्धि तथा सुर
‘गं’ गणपति का बीज ‘ध’ धूमावती का बीज
‘म’ महेश ‘पु’ पुण्डरीकाक्ष
‘ष्टि’ देह में स्थित षटकोण ‘व’ वाकिनी
‘र्ध’ धर्म ‘नं’ नंदी
‘उ’ उमा ‘र्वा’ शिव की बाईं शक्ति
‘रु’ रूप तथा आँसू ‘क’ कल्याणी
‘व’ वरुण ‘बं’ बंदी देवी
‘ध’ धंदा देवी ‘मृ’ मृत्युंजय
‘त्यो’ नित्येश ‘क्षी’ क्षेमंकरी
‘य’ यम तथा यज्ञ ‘मा’ माँग तथा मन्त्रेश
‘मृ’ मृत्युंजय ‘तात’ चरणों में स्पर्श

यह पूर्ण विवरण ‘देवो भूत्वा देवं यजेत’ के अनुसार पूर्णतः सत्य प्रमाणित हुआ है।

महामृत्युंजय के अलग-अलग मंत्र हैं। आप अपनी सुविधा के अनुसार जो भी मंत्र चाहें चुन लें और नित्य पाठ में या आवश्यकता के समय प्रयोग में लाएँ। 

मंत्र निम्नलिखित हैं

तांत्रिक बीजोक्त मंत्र

ॐ भूः भुवः स्वः। 
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। 
स्वः भुवः भूः ॐ ॥

संजीवनी मंत्र अर्थात्‌ संजीवनी विद्या

ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ भूर्भवः स्वः। 
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। 
उर्वारुकमिव बन्धनांन्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। 
स्वः भुवः भूः ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ ।

महामृत्युंजय का प्रभावशाली मंत्र

ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ भूः भुवः स्वः। 
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। 
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। 
स्वः भुवः भूः ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ ॥

महामृत्युंजय मंत्र जाप में सावधानियाँ
महामृत्युंजय मंत्र का जप करना परम फलदायी है। लेकिन इस मंत्र के जप में कुछ सावधानियाँ रखना चाहिए जिससे कि इसका संपूर्ण लाभ प्राप्त हो सके और किसी भी प्रकार के अनिष्ट की संभावना न रहे। अतः जप से पूर्व निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए।

1. जो भी मंत्र जपना हो उसका जप उच्चारण की शुद्धता से करें।
2. एक निश्चित संख्या में जप करें। पूर्व दिवस में जपे गए मंत्रों से, आगामी दिनों में कम मंत्रों का जप न करें। यदि चाहें तो अधिक जप सकते हैं।
3. मंत्र का उच्चारण होठों से बाहर नहीं आना चाहिए। यदि अभ्यास न हो तो धीमे स्वर में जप करें।
4. जप काल में धूप-दीप जलते रहना चाहिए।
5. रुद्राक्ष की माला पर ही जप करें।
6. माला को गोमुखी में रखें। जब तक जप की संख्या पूर्ण न हो, माला को गोमुखी से बाहर न निकालें।
7. जप काल में शिवजी की प्रतिमा, तस्वीर, शिवलिंग या महामृत्युंजय यंत्र पास में रखना अनिवार्य है।
8. महामृत्युंजय के सभी जप कुशा के आसन के ऊपर बैठकर करें।
9. जप काल में दुग्ध मिले जल से शिवजी का अभिषेक करते रहें या शिवलिंग पर चढ़ाते रहें।
10. महामृत्युंजय मंत्र के सभी प्रयोग पूर्व दिशा की तरफ मुख करके ही करें।
11. जिस स्थान पर जपादि का शुभारंभ हो, वहीं पर आगामी दिनों में भी जप करना चाहिए।
12. जपकाल में ध्यान पूरी तरह मंत्र में ही रहना चाहिए, मन को इधर-उधरन भटकाएँ।
13. जपकाल में आलस्य व उबासी को न आने दें।
14. मिथ्या बातें न करें।
15. जपकाल में स्त्री सेवन न करें।
16. जपकाल में मांसाहार त्याग दें।

कब करें महामृत्युंजय मंत्र जाप?

महामृत्युंजय मंत्र जपने से अकाल मृत्यु तो टलती ही है, आरोग्यता की भी प्राप्ति होती है। स्नान करते समय शरीर पर लोटे से पानी डालते वक्त इस मंत्र का जप करने से स्वास्थ्य लाभ होता है।

दूध में निहारते हुए इस मंत्र का जप किया जाए और फिर वह दूध पी लिया जाए तो यौवन की सुरक्षा में भी सहायता मिलती है। साथ ही इस मंत्र का जप करने से बहुत सी बाधाएँ दूर होती हैं, अतः इस मंत्र का यथासंभव जप करना चाहिए। 

निम्नलिखित स्थितियों में इस मंत्र का जाप कराया जाता है।
(1) ज्योतिष के अनुसार यदि जन्म, मास, गोचर और दशा, अंतर्दशा, स्थूलदशा आदि में ग्रहपीड़ा होने का योग है।
(2) किसी महारोग से कोई पीड़ित होने पर।
(3) जमीन-जायदाद के बँटबारे की संभावना हो।
(4) हैजा-प्लेग आदि महामारी से लोग मर रहे हों।
(5) राज्य या संपदा के जाने का अंदेशा हो।
(6) धन-हानि हो रही हो।
(7) मेलापक में नाड़ीदोष, षडाष्टक आदि आता हो।
(8) राजभय हो।
(9) मन धार्मिक कार्यों से विमुख हो गया हो।
(10) राष्ट्र का विभाजन हो गया हो।
(11) मनुष्यों में परस्पर घोर क्लेश हो रहा हो।
(12) त्रिदोषवश रोग हो रहे हों।

॥ इति महामृत्युंजय जप विधि ॥ 
।।जय भोले नाथ।। हर हर महादेव।।

(साभार - श्री कृष्ण भारद्वाज)

'प्रार्थना'



बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि जब भी किसी मंदिर में दर्शन के लिए जाएं तो दर्शन करने के बाद बाहर आकर मंदिर की पेडी या ऑटले पर थोड़ी देर बैठते हैं । क्या आप जानते हैं इस परंपरा का क्या कारण है ?

यह प्राचीन परंपरा एक विशेष उद्देश्य के लिए बनाई गई है। वास्तव में मंदिर की पैड़ी पर बैठ कर एक श्लोक बोलना चाहिए। यह श्लोक आजकल के लोग भूल गए हैं। इस श्लोक को मनन करें और आने वाली पीढ़ी को भी बताएं। श्लोक इस प्रकार है ~
            
अनायासेन मरणम् , बिना देन्येन जीवनम्।
देहान्त तव सानिध्यम् , देहि मे परमेश्वरम्॥

इस श्लोक का अर्थ है -

अनायासेन मरणम्,  अर्थात् बिना तकलीफ के हमारी मृत्यु हो और कभी भी बीमार होकर बिस्तर पर न पड़ें, कष्ट उठाकर मृत्यु को प्राप्त ना हों चलते फिरते ही हमारे प्राण निकल जाएं।

बिना देन्येन जीवनम्, अर्थात् परवशता का जीवन ना हो। कभी किसी के सहारे ना रहना पड़े। जैसे कि लकवा हो जाने पर व्यक्ति दूसरे पर आश्रित हो जाता है वैसे परवश या बेबस ना हों। ठाकुर जी की कृपा से बिना भीख के ही जीवन बसर हो सकें।

देहांते तव सानिध्यम,  अर्थात् जब भी मृत्यु हो तब भगवान के सम्मुख हो। जैसे भीष्म पितामह की मृत्यु के समय स्वयं ठाकुर (कृष्ण जी) उनके सम्मुख जाकर खड़े हो गए। उनके दर्शन करते हुए प्राण निकले।

देहि में परमेशवरम्, हे परमेश्वर ऐसा वरदान हमें देना।

भगवान से प्रार्थना करते हुऐ उपरोक्त श्र्लोक का पाठ करें। गाड़ी, बंगला, लड़का, लड़की, पति, पत्नी, घर, धन इत्यादि (अर्थात् संसार) नहीं मांगना है, यह तो भगवान आप की पात्रता के हिसाब से खुद आपको देते हैं। इसीलिए दर्शन करने के बाद बैठकर यह प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए। यह प्रार्थना है, याचना नहीं है। याचना सांसारिक पदार्थों के लिए होती है। जैसे कि घर, व्यापार,नौकरी, पुत्र, पुत्री, सांसारिक सुख, धन या अन्य बातों के लिए जो मांग की जाती है वह याचना है वह भीख है।

हम प्रार्थना करते हैं 'प्रार्थना' शब्द के 'प्र' का अर्थ होता है 'विशेष' अर्थात् विशिष्ट, श्रेष्ठ और 'अर्थना' अर्थात् निवेदन। ठाकुर जी से प्रार्थना करें और प्रार्थना क्या करना है ,यह श्लोक बोलना है।

मंदिर में भगवान का दर्शन सदैव खुली आंखों से करना चाहिए, निहारना चाहिए। कुछ लोग वहां आंखें बंद करके खड़े रहते हैं। आंखें बंद क्यों करना, हम तो दर्शन करने आए हैं। भगवान के स्वरूप का, श्री चरणों का, मुखारविंद का, श्रृंगार का, संपूर्ण आनंद लें, आंखों में भर ले निज-स्वरूप को।

दर्शन के बाद जब बाहर आकर बैठें, तब नेत्र बंद करके जो दर्शन किया हैं उस स्वरूप का ध्यान करें। मंदिर से बाहर आने के बाद, पैड़ी पर बैठ कर स्वयं की आत्मा का ध्यान करें तब नेत्र बंद करें और अगर निज आत्मस्वरूप ध्यान में भगवान नहीं आए तो दोबारा मंदिर में जाएं और पुन: दर्शन करें।

॥ सत्यम परम् धीमहि ॥

🙏 जय श्रीकृष्ण जय श्रीराम। 🙏

Tuesday 26 May 2020

स्वस्तिक मंत्र !

"स्वस्तिक मांगलिक चिह्न"

स्वस्तिक मंत्र या "स्वस्ति मन्त्र" शुभ और शांति के लिए प्रयुक्त होता है।
स्वस्ति = सु + अस्ति = कल्याण हो। ऐसा माना जाता है कि इससे हृदय और मन मिल जाते हैं। मंत्रोच्चार करते हुए दर्भ से जल के छींटे डाले जाते थे तथा यह माना जाता था कि यह जल पारस्परिक क्रोध और वैमनस्य को शांत कर रहा है। स्वस्ति मन्त्र का पाठ करने की क्रिया 'स्वस्तिवाचन' कहलाती है।

स्वस्तिक अत्यन्त प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति में मंगल- प्रतीक माना जाता रहा है। इसीलिए किसी भी शुभ कार्य को करने से पहले स्वस्तिक चिह्न अंकित करके उसका पूजन किया जाता है।

स्वस्तिक शब्द सु+अस+क से बना है।
'सु' का अर्थ सुंदर,'अस' का अर्थ 'सत्ता' या 'अस्तित्व' और 'क' का अर्थ 'कर्त्ता' या करने वाले से है। इस प्रकार 'स्वस्तिक' शब्द का अर्थ हुआ 'अच्छा' या 'मंगल' करने वाला।

'अमरकोश' में भी 'स्वस्तिक' का अर्थ आशीर्वाद,मंगल या पुण्यकार्य करना लिखा है। अमरकोश के शब्द हैं - 'स्वस्तिक,सर्वतोऋद्ध' अर्थात् 'सभी दिशाओं में सबका कल्याण हो।' इस प्रकार 'स्वस्तिक' शब्द में किसी व्यक्ति या जाति विशेष का नहीं,अपितु सम्पूर्ण विश्व के कल्याण या 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना निहित है।

स्वस्तिक का शाब्दिक अर्थ होता है - "अच्छा या मंगल करने वाला।" स्वस्तिक चिन्ह को हिन्दू धर्म ने ही नहीं सभी धर्मों ने परम पवित्र माना है। हिन्दू संस्कृति के प्राचीन ऋषियों ने अपने धर्म के आध्यात्मिक अनुभवों के आधार पर कुछ विशेष चिन्हों की रचना की, ये चिन्ह मंगल भावों को प्रकट करते हैं,ऐसा ही एक चिन्ह है - 'स्वस्तिक'। प्रकार स्वस्तिक को मंगल चिन्हों में सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है और पुरे विश्व में इसे सकारात्मक ऊर्जा का स्रोत माना जाता है। इसी कारण किसी भी शुभ कार्य को शुरू करने से पहले स्वस्तिक का चिन्ह बनाया जाता है।

'स्वास्तिक' केवल एक चिह्न नहीं बल्कि शक्ति और विश्वास का नाम है। हिंदू पूजा विधान में स्वास्तिक के महत्व से कौन परिचित नहीं है।

पूजा का प्रारंभ ही पूजन स्थल पर स्वास्तिक बनाने के साथ होता है। हिंदू घरों में हर शुभ कार्य  स्वस्ति,स्वास्तिक या सातिया बनाकर ही शुरू किया जाता है। साधारण पूजा-पाठ हो या कोई विशाल धार्मिक आयोजन, स्वास्तिक हर जगह अंकित किया ही जाता है।

हिंदू घरों में विवाह के बाद वर-वधु को स्वस्तिक के दर्शन कराए जाते हैं,ताकि वे सफल दांपत्य जीवन प्राप्त कर सकें। कई स्थानों पर नवजात शिशु को छठी यानी जन्म के छठवें दिन स्वस्तिक अंकित वस्त्र पर सुलाया जाता है। राजस्थान में नवविवाहिता की ओढ़नी पर स्वस्तिक चिन्ह बनाया जाता है। मान्यता है कि इससे वधु के सौभाग्य सुख में वृद्धि होती है। गुजरात में लगभग हर घर के दरवाजे पर सुंदर रंगों से स्वस्तिक बनाए जाने की परम्परा है। माना जाता है कि इससे घर मेंअन्न,वस्त्र,वैभव की कमी नहीं होती और अतिथि हमेशा शुभ समाचार लेकर आता है। 

ऋग्वेद की ऋचा में स्वस्तिक को सूर्य का प्रतीक माना गया है और उसकी चार भुजाओं को चार दिशाओं की उपमा दी गई है। सिद्धान्त सार ग्रन्थ में उसे विश्व ब्रह्माण्ड का प्रतीक चित्र माना गया है। उसके मध्य भाग को विष्णु की कमल नाभि और रेखाओं को ब्रह्माजी के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में निरूपित किया गया है। अन्य ग्रन्थों में चार युग,चार वर्ण, चार आश्रम एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार प्रतिफल प्राप्त करने वाली समाज व्यवस्था एवं वैयक्तिक आस्था को जीवन्त रखने वाले संकेतों को स्वस्तिक में ओत- प्रोत बताया गया है।

मंगलकारी प्रतीक चिह्न स्वस्तिक अपने आप में विलक्षण है। यह मांगलिक चिह्न अनादि काल से सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त रहा है। अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक को मंगल- प्रतीक माना जाता रहा है। विघ्नहर्ता गणेश की उपासना धन,वैभव और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी के साथ भी शुभ लाभ, स्वस्तिक तथा बहीखाते की पूजा की परम्परा है। इसे भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान प्राप्त है। इसीलिए जातक की कुण्डली बनाते समय या कोई मंगल व शुभ कार्य करते समय सर्वप्रथम स्वस्तिक को ही अंकित किया जाता है। स्वस्तिक मंत्र या स्वस्ति मन्त्र शुभ और शांति के लिए प्रयुक्त होता है।

स्वस्ति = सु + अस्ति = कल्याण हो।

ऐसा माना जाता है कि इससे हृदय और मन मिल जाते हैं। मंत्रोच्चार करते हुए दर्भ से जल के छींटे डाले जाते थे तथा यह माना जाता था कि यह जल पारस्परिक क्रोध और वैमनस्य को शांत कर रहा है। स्वस्ति मन्त्र का पाठ करने की क्रिया 'स्वस्तिवाचन' कहलाती है।

ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥

अर्थ - महती कीर्ति वाले ऐश्वर्य शाली इन्द्र हमारा कल्याण करें, जिसको संसार का विज्ञान और जिसका सब पदार्थों में स्मरण है,सबके पोषणकर्ता वे पूषा (सूर्य) हमारा कल्याण करें।  जिनकी चक्रधारा के समान गति को कोई रोक नहीं सकता, वे गरुड़देव हमारा कल्याण करें। वेदवाणी के स्वामी बृहस्पति हमारा कल्याण करे।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

(Courtesy - Unknown WhatsApp forwarded message)

Monday 25 May 2020

सूर्य अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र

ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव।
यद् भद्रं तन्न आ सुव।। (ऋग्वेद ५।८२।५)

समस्त संसार को उत्पन्न करने वाले (सृष्टि-पालन-संहार करने वाले) विश्व में सर्वाधिक देदीप्यमान एवं जगत को शुभकर्मों में प्रवृत्त करने वाले हे परब्रह्मस्वरूप सवितादेव! आप हमारे सभी आध्यात्मिक, आधिदैविक व आधिभौतिक बुराइयों व पापों को हमसे दूर, बहुत दूर ले जाएं; किन्तु जो भला, कल्याण, मंगल व श्रेय है, उसे हमारे लिए–विश्व के सभी प्राणियों के लिए भली-भांति ले आवें (दें)।’

भुवन-भास्कर भगवान सूर्य !

भगवान सूर्य परमात्मा नारायण के साक्षात् प्रतीक हैं, इसलिए वे सूर्यनारायण कहलाते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए कहा है - ‘ज्योतिषां रविरंशुमान्’  अर्थात् मैं (परमब्रह्म परमात्मा) तेजोमय सूर्यरूप में भी प्रतिष्ठित हैं। सूर्य प्रत्यक्ष देव हैं, इस ब्रह्माण्ड के केन्द्र हैं - आकाश में देखे जाने वाले नक्षत्र, ग्रह और राशिमण्डल इन्हीं की आकर्षण शक्ति से टिके हुए हैं। सभी प्राणियों और उनके भले बुरे कर्मों को निहारने में समर्थ होने के कारण वे मित्र, वरुण और अग्नि की आंख है।

वे विश्व के पोषक व प्राणदाता, समय की गति के नियामक व तेज के महान पुंज हैं। उनकी उपासना से हमारे तेज, बल, आयु एवं नेत्रों की ज्योति की वृद्धि होती है। अथर्ववेद में कहा गया है कि सूर्य हृदय की दुर्बलता को दूर करते हैं। प्रात:कालीन सूर्य की किरणें विटामिन ‘डी’ का भंडार होती हैं जो मनुष्य के उत्तम स्वास्थ्य के लिए बहुत आवश्यक है।

धर्मराज युधिष्ठिर के साथ ब्राह्मणों का वन गमन !

जिस समय भगवान श्रीकृष्ण दूर देश में शत्रुओं के विनाश में लगे थे, उस समय धर्मराज युधिष्ठिर जुए में अपना राज्य व धन-धान्यादि सब हार गए और उन्हें बारह वर्षों का वनवास जुए में हार स्वरूप मिला। दुर्योधन की कुटिल द्यूतक्रीड़ा से पराजित हुए पांचों पांडव जब द्रौपदी सहित वन को जाने लगे, तब धर्मराज युधिष्ठिर की राज्यसभा में धर्म का सम्पादन करने वाले हजारों वैदिक ब्राह्मणों का दल युधिष्ठिर के मना करने पर भी उनके साथ वन को चल दिया। 

युधिष्ठिर ने उन्हें समझाया–’वन की इस यात्रा में आपको बहुत कष्ट होगा अत: आप सब मेरा साथ छोड़कर अपने घर लौट जाएं।’ परन्तु ब्राह्मणों ने कहा–’हम वनवास में आपके मंगल के लिए प्रार्थना करेंगे और सुन्दर कथाएं सुनाकर आपके मन को प्रसन्न रखेंगे।’ युधिष्ठिर ब्राह्मणों का निश्चय जानकर चिन्तित हो सोचने लगे - ’किसी भी सत्पुरुष के लिए अपने अतिथियों का स्वागत-सत्कार करना परम कर्तव्य है, तो ऐसी स्थिति में इन विप्रजनों का स्वागत कैसे किया जा सकेगा?’

कुछ दूर वन में जाकर युधिष्ठिर ने अपने पुरोहित धौम्य ऋषि से प्रार्थना की - ’हे ऋषे! ये ब्राह्मण जब मेरा साथ दे रहे हैं, तब इनके भोजन की व्यवस्था भी मुझे ही करनी चाहिए। अत: आप इन सबके भोजन की व्यवस्था का कोई उपाय बताइए।’

तब धौम्य ऋषि ने कहा – ’मैं ब्रह्माजी द्वारा कहा हुआ अष्टोत्तरशतनाम (एक सौ आठ नाम)  सूर्य स्तोत्र तुम्हें देता हूँ; तुम उसके द्वारा भगवान सूर्य की आराधना करो। तुम्हारा मनोरथ वे शीघ्र ही पूरा करेंगे।’

महाभारत के वनपर्व में सूर्य अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र का वर्णन !

सूर्य अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र का वर्णन महाभारत के वनपर्व में तीसरे अध्याय में किया गया है -  धौम्य उवाच: - 

सूर्योऽर्यमा भगस्त्वष्टा पूषार्क: सविता रवि:।
गभस्तिमानज: कालो मृत्युर्धाता प्रभाकर:।।
पृथिव्यापश्च तेजश्च खं वायुश्च परायणम्।
सोमो बृहस्पति: शुक्रो बुधो अंगारक एव च।।
इन्द्रो विवस्वान् दीप्तांशु: शुचि: शौरि: शनैश्चर:।
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्दो वै वरुणो यम:।।
वैद्युतो जाठरश्चाग्नि रैन्धनस्तेजसां पति:।
धर्मध्वजो वेदकर्ता वेदांगो वेदवाहन:।।
कृतं त्रेता द्वापरश्च कलि: सर्वमलाश्रय:।
कला काष्ठा मुहूर्त्ताश्च क्षपा यामस्तथा क्षण:।।
संवत्सरकरोऽश्वत्थ: कालचक्रो विभावसु:।
पुरुष: शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्त: सनातन:।।
कालाध्यक्ष: प्रजाध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुद:।
वरुण: सागरोंऽशश्च जीमूतो जीवनोऽरिहा।।
भूताश्रयो भूतपति: सर्वलोकनमस्कृत:।
स्रष्टा संवर्तको वह्नि: सर्वस्यादिरलोलुप:।।
अनन्त: कपिलो भानु: कामद: सर्वतोमुख:।
जयो विशालो वरद: सर्वधातुनिषेचिता।।
मन:सुपर्णो भूतादि: शीघ्रग: प्राणधारक:।
धन्वन्तरिर्धूमकेतुरादिदेवो दिते: सुत:।।
द्वादशात्मारविन्दाक्ष: पिता माता पितामह:।
स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम्।।
देहकर्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुख:।
चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेय: करुणान्वित:।।

भगवान सूर्य के अष्टोत्तरशतनाम नाम (हिन्दी में) - ब्रह्माजी द्वारा बताए गए भगवान सूर्य के एक सौ आठ नाम जो स्वर्ग और मोक्ष देने वाले हैं, इस प्रकार हैं–

१. सूर्य, 
२. अर्यमा, 
३. भग, 
४. त्वष्टा, 
५. पूषा (पोषक), 
६. अर्क, 
७. सविता, 
८. रवि, 
९. गभस्तिमान (किरणों वाले), 
१०. अज (अजन्मा), 
११. काल, 
१२. मृत्यु, 
१३. धाता (धारण करने वाले), 
१४. प्रभाकर (प्रकाश का खजाना), 
१५. पृथ्वी, 
१६. आप् (जल), 
१७. तेज, 
१८. ख (आकाश), 
१९. वायु,
२०. परायण (शरण देने वाले), 
२१. सोम, 
२२. बृहस्पति, 
२३. शुक्र, २४. बुध, 
२५. अंगारक (मंगल), 
२६. इन्द्र, २७. विवस्वान्, 
२८. दीप्तांशु (प्रज्वलित किरणों वाले), 
२९. शुचि (पवित्र), 
३०. सौरि (सूर्यपुत्र मनु), 
३१. शनैश्चर, ३२. ब्रह्मा, 
३३. विष्णु, 
३४. रुद्र, 
३५. स्कन्द (कार्तिकेय), 
३६. वैश्रवण (कुबेर), 
३७. यम, 
३८. वैद्युताग्नि, 
३९. जाठराग्नि, 
४०. ऐन्धनाग्नि,  
४१. तेज:पति, 
४२. धर्मध्वज, 
४३. वेदकर्ता, 
४४. वेदांग, 
४५. वेदवाहन, 
४६. कृत (सत्ययुग), 
४७. त्रेता, 
४८. द्वापर, 
४९. सर्वामराश्रय कलि, 
५०. कला, काष्ठा मुहूर्तरूप समय, 
५१. क्षपा (रात्रि), 
५२. याम (प्रहर), 
५३. क्षण, 
५४. संवत्सरकर, 
५५. अश्वत्थ, 
५६. कालचक्र प्रवर्तक विभावसु, 
५७. शाश्वतपुरुष, 
५८. योगी, 
५९. व्यक्ताव्यक्त, 
६०. सनातन, 
६१. कालाध्यक्ष, 
६२. प्रजाध्यक्ष, 
६३. विश्वकर्मा, 
६४. तमोनुद (अंधकार को भगाने वाले), 
६५. वरुण, 
६६. सागर, 
६७. अंशु, 
६८. जीमूत (मेघ), 
६९. जीवन, 
७०. अरिहा (शत्रुओं का नाश करने वाले), 
७१. भूताश्रय, 
७२. भूतपति, 
७३. सर्वलोकनमस्कृत, 
७४. स्रष्टा,
७५. संवर्तक, 
७६. वह्नि, 
७७. सर्वादि,
७८. अलोलुप (निर्लोभ), 
७९.  अनन्त, 
८०. कपिल, 
८१. भानु, 
८२. कामद, 
८३. सर्वतोमुख,  
८४. जय,  
८५. विशाल,
८६. वरद, 
८७. सर्वभूतनिषेवित, 
८८. मन:सुपर्ण, 
८९. भूतादि, 
९०. शीघ्रग (शीघ्र चलने वाले), 
९१. प्राणधारण, 
९२. धन्वन्तरि, 
९३. धूमकेतु, 
९४. आदिदेव, 
९५. अदितिपुत्र, 
९६. द्वादशात्मा (बारह स्वरूपों वाले), 
९७. अरविन्दाक्ष, 
९८. पिता-माता-पितामह, 
९९. स्वर्गद्वार-प्रजाद्वार, 
१००. मोक्षद्वार, 
१०१. देहकर्ता, 
१०२. प्रशान्तात्मा, 
१०३. विश्वात्मा, 
१०४. विश्वतोमुख, 
१०५. चराचरात्मा, 
१०६. सूक्ष्मात्मा, 
१०७. मैत्रेय, 
१०८. करुणान्वित (दयालु)।

सूर्य के नामों की व्याख्या !

सूर्य के अष्टोत्तरशतनामों में कुछ नाम ऐसे हैं जो उनकी परब्रह्मरूपताप्रकट करते हैं जैसे - अश्वत्थ, शाश्वतपुरुष, सनातन, सर्वादि, अनन्त, प्रशान्तात्मा, विश्वात्मा, विश्वतोमुख, सर्वतोमुख, चराचरात्मा, सूक्ष्मात्मा।

सूर्य की त्रिदेवरूपता बताने वाले नाम हैं - ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, शौरि, वेदकर्ता, वेदवाहन, स्रष्टा, आदिदेव व पितामह। सूर्य से ही समस्त चराचर जगत का पोषण होता है और सूर्य में ही लय होता है, इसे बताने वाले सूर्य के नाम हैं - प्रजाध्यक्ष, विश्वकर्मा, जीवन, भूताश्रय, भूतपति, सर्वधातुनिषेविता, प्राणधारक, प्रजाद्वार, देहकर्ता और चराचरात्मा।

सूर्य का नाम काल है और वे काल के विभाजक है, इसलिए उनके नाम हैं - कृत, त्रेता, द्वापर, कलियुग, संवत्सरकर, दिन, रात्रि, याम, क्षण, कला, काष्ठा–मुहुर्तरूप समय।

सूर्य ग्रहपति हैं इसलिए एक सौ आठ नामों में सूर्य के सोम, अंगारक, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनैश्चर व धूमकेतु  नाम भी हैं।

उनका ‘व्यक्ताव्यक्त’ नाम यह दिखाता है कि वे शरीर धारण करके प्रकट हो जाते हैं। कामद, करुणान्वित नाम उनका देवत्व प्रकट करते हुए यह बताते हैं कि सूर्य की पूजा से इच्छाओं की पूर्ति होती है।

सूर्य के नाम मोक्षद्वार, स्वर्गद्वार व त्रिविष्टप यह प्रकट करते हैं कि सूर्योपासना से स्वर्ग की प्राप्ति होती हैं। उत्तारायण सूर्य की प्रतीक्षा में भीष्मजी ने अट्ठावन दिन शरशय्या पर व्यतीत किए। गीता में कहा गया है–उत्तरायण में मरने वाले ब्रह्मलोक को प्राप्त करते हैं। सूर्य के सर्वलोकनमस्कृत नाम से स्पष्ट है कि सूर्यपूजा बहुत व्यापक है।

अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र के पाठ का फल !

एतद् वै कीर्तनीयस्य सूर्यस्यामिततेजस:।
नामाष्टशतकं चेदं प्रोक्तमेतत् स्वयंभुवा।।
सुरगणपितृयक्षसेवितं ह्यसुरनिशाचरसिद्धवन्दितम्।
वरकनकहुताशनप्रभं प्रणिपतितोऽस्मि हिताय भास्करम्।।
सूर्योदये य: सुसमाहित: पठेत् स पुत्रदारान् धनरत्नसंचयान्।
लभेत जातिस्मरतां नर: सदा धृतिं च मेधां च स विन्दते पुमान्।।
इमं स्तवं देववरस्य यो नर: प्रकीर्तयेच्छुचिसुमना: समाहित:।
विमुच्यते शोकदवाग्निसागराल्लभेत कामान् मनसा यथेप्सितान्।।

ये अमित तेजस्वी, सुवर्ण एवं अग्नि के समान कान्ति वाले भगवान सूर्य - जो देवगण, पितृगण एवं यक्षों के द्वारा सेवित हैं तथा असुर, निशाचर, सिद्ध एवं साध्य के द्वारा वन्दित हैं - के कीर्तन करने योग्य एक सौ आठ नाम हैं जिनका उपदेश साक्षात् ब्रह्मजी ने दिया है।

सूर्योदय के समय इस सूर्य-स्तोत्र का नित्य पाठ करने से व्यक्ति स्त्री, पुत्र, धन, रत्न, पूर्वजन्म की स्मृति, धैर्य व बुद्धि प्राप्त कर लेता है। उसके समस्त शोक दूर हो जाते हैं व सभी मनोरथों को भी प्राप्त कर लेता है।

सूर्योपासना से युधिष्ठिर को अक्षयपात्र की प्राप्ति !

धौम्य ऋषि द्वारा बताए इस स्तोत्र और सूर्योपासना के कठिन नियमों का युधिष्ठिर ने विधिपूर्वक अनुष्ठान किया। सूर्यदेव ने प्रसन्न होकर अक्षयपात्र देते हुए युधिष्ठिर से कहा - ’मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, तुम्हारे समस्त संगियों के भोजन की व्यवस्था के लिए मैं तुम्हें यह अक्षयपात्र देता हूँ; अनन्त प्राणियों को भोजन कराकर भी जब तक द्रौपदी भोजन नहीं करेगी, तब तक यह पात्र खाली नहीं होगा और द्रौपदी इस पात्र में जो भोजन बनाएगी, उसमें छप्पन भोग-छत्तीसों व्यंजनों का-सा स्वाद आएगा।’ जब वह पात्र मांज-धोकर पवित्र कर दिया जाता था और दोबारा उसमें भोजन बनता था तो वही अक्षय्यता उसमें आ जाती थी।

इस प्रकार इस अक्षयपात्र की सहायता से धर्मराज युधिष्ठिर के वनवास के बारह वर्ष ऋषि-मुनि, ब्राह्मणों, और वनवासी सभी व्यक्तियों की सेवा करते हुए सरलता से व्यतीत हो गए।

महाभारत के उसी प्रसंग में यह कहा गया है कि जो कोई मानव या यक्ष मन को संयम में रखकर, एकाग्रतापूर्वक युधिष्ठिर द्वारा प्रयुक्त स्तोत्र का पाठ करेगा, और कोई दुर्लभ वर भी मांगेगा तो भगवान सूर्य उसे वरदान देकर पूरा करेंगे। षष्ठी और सप्तमी को सूर्य की पूजा करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। अत: सूर्य की उपासना सभी को करनी चाहिए।

जिन सहस्त्ररश्मि भगवान सूर्य के सम्बन्ध में यह निर्णय नहीं हो पाता कि वे वास्तव में देवता है या पालनकर्ता पिता; अर्चना करने योग्य ईश्वर हैं या गुरु; विश्वप्रकाशक दीपक हैं या नेत्र; ब्रह्माण्ड के आदिकारण हैं या कुछ और! किन्तु इतना निश्चित है कि वे सभी कालों, देशों और सभी दशाओं में कल्याण करने वाले मंगलकारक हैं।


(Courtesy - Unknown WhatsApp forwarded message)

Thursday 21 May 2020

रामेश्वरम ।



रामस्य ईश्वर: स: रामेश्वर: : राम ईश्वरो यस्य सः रामेश्वरः

प्रभु रामेश्वरम् के ज्योतिर्लिंग की स्थापना श्रीराम ने रामसेतु बनाने से पहले की थी।  जब महावीर हनुमान ने उनके द्वारा दिए गए शिवलिंग के इस नाम का मतलब पूछा तो भगवान् राम ने शिव जी के नवीन स्थापित ज्योतिर्लिंग के स्वयं द्वारा दिए इस नाम की व्याख्या में कहा -

रामस्य ईश्वर: स: रामेश्वर:

मतलब जो श्री राम के ईश्वर हैं वही रामेश्वर हैं.

बाद में जब रामसेतु बनने की कहानी भगवान् शिव, माता सती को सुनाने लगे तो बोले के प्रभु श्री राम ने बड़ी चतुराई से रामेश्वरम नाम की व्याख्या ही बदल दी।  माता सती ने पूछा, ऐसा कैसे ? तो देवाधिदेव महादेव ने रामेश्वरम नाम की व्याख्या करते हुए उच्चारण में थोड़ा सा फ़र्क बताया -

राम ईश्वरो यस्य सः रामेश्वरः

यानि श्री राम जिसके ईश्वर हैं वही रामेश्वर हैं। 

ब्रह्माजी ने आकर कहा - रामेश्वर का सही अर्थ मैं करता हूँ - 

"रामश्चासौ ईश्वरश्च, रामेश्वरः" 

जो राम हैं वो ईश्वर है, जो ईश्वर है वो शंकर है, नाम भिन्न है लेकिन है तो एक ही, राम ही कृष्ण हैं, कृष्ण ही नारायण् है और वही शिव हैं। 

जब विष्णुजी ने श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया तो अपने इष्ट के बाल रूप के दर्शन और उनकी लीला को देखने के लिए शिवजी ने जोगी रूप बनाया। 

श्रीकृष्ण के जन्म के समय श्रीशंकरजी समाधि में थे। जब वह जागृत हुए तब उन्हें मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण ब्रज में बाल रूप में प्रकट हुये हैं। इससे शंकरजी ने बालकृष्ण के दर्शन के लिए जाने का विचार किया। शिवजी ने जोगी (साधु) का स्वाँग (रूप) सजाया और 

‘श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे। हे नाथ नारायण वासुदेवाय’ 

कीर्तन करते हुए वे नन्दगाँव में माता यशोदा के द्वार पर आकर खड़े हो गए। 

‘अलख निरंजन’ शिवजी ने आवाज लगायी। आज परमात्मा कृष्ण रूप में प्रत्यक्ष प्रकट हुए हैं। शिवजी इन साकार ब्रह्म के दर्शन के लिए आए हैं। यशोदामाता को पता चला कि कोई साधु द्वार पर भिक्षा लेने के लिए खड़े हैं। उन्होंने दासी को साधु को फल देने की आज्ञा दी। दासी ने हाथ जोड़कर साधु को भिक्षा लेने व बालकृष्ण को आशीर्वाद देने को कहा। शिवजी ने दासी से कहा कि, 

‘मेरे गुरू ने मुझसे कहा है कि गोकुल में यशोदाजी के घर परमात्मा प्रकट हुए हैं। इससे मैं उनके दर्शन के लिए आया हूँ। मुझे लाला के दर्शन करने हैं।’ (ब्रज में शिशुओं को लाला कहते हैं, व शैव साधुओं को जोगी कहते हैं)। दासी ने भीतर जाकर यशोदामाता को सब बात बतायी। यशोदाजी को आश्चर्य हुआ। उन्होंने बाहर झाँककर देखा कि एक साधु खड़े हैं।  यशोदामाता ने साधु को बारम्बार प्रणाम करते हुए कहा कि, ‘महाराज आप महान पुरुष लगते हैं। क्या भिक्षा कम लग रही है ? आप माँगिये, मैं आपको वही दूँगी पर मैं लाला को बाहर नहीं लाऊँगी। आज भी नन्दगाँव में नन्दभवन के बाहर आशेश्वर महादेव का मंदिर है जहां शिवजी श्रीकृष्ण के दर्शन की आशा में बैठे हैं। 

माया (एक बुजुर्ग महिला) के समझाने पर माता यशोदा ने बाल श्रीकृष्ण के दर्शन करवा दिये।  श्रीकृष्ण और शिवजी की आँखें जब चार हुयीं तब शिवजी को अति आनंद हुआ। शिवजी की दृष्टि पड़ी तो बालकृष्ण हँसने लगे।  

शिवजी योगीश्वर हैं और श्रीकृष्ण योगेश्वर हैं। श्रीकृष्ण प्रवृत्ति धर्म समझाते हैं, शिवजी निवृत्ति धर्म समझाते हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण में कथा है कि भगवान श्रीकृष्ण के दिव्य अंगों से भगवान नारायण, शिव व अन्य देवी-देवता प्रादुर्भूत हुए। शिवजी ने श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए कहा– 

विश्वं विश्वेश्वरेशं च विश्वेशं विश्वकारणम्। विश्वाधारं च विश्वस्तं विश्वकारणकारणम्।। 
विश्वरक्षाकारणं च विश्वघ्नं विश्वजं परम्। फलबीजं फलाधारं फलं च तत्फलप्रदम्।। 

‘आप विश्वरूप हैं, विश्व के स्वामी हैं, नहीं नहीं, विश्व के स्वामियों के भी स्वामी हैं, विश्व के कारण हैं, कारण के भी कारण हैं, विश्व के आधार हैं, विश्वस्त हैं, विश्वरक्षक हैं, विश्व का संहार करने वाले हैं और नाना रूपों में विश्व में आविर्भूत होते हैं। आप फलों के बीज हैं, फलों के आधार हैं, फलस्वरूप हैं और फलदाता हैं।

🙏 ।। जय श्री हरि । जय भोलेनाथ ।। 🙏

Tuesday 12 May 2020

शुभ सन्ध्या वन्दन ।।

श्री राम जय राम जय जय राम।।
जय जय विघ्न हरण हनुमान ।।


राम से बडा राम का नाम क्यों है ? 

राम नाम ही परमब्रह्म है 
 
एक नाम जाप होता है और एक मंत्र जाप होता है . राम नाम मन्त्र भी है और नाम भी . राम राम राम ऐसे नाम जाप कि पुकार विधिरहित होती है . इस प्रकार भगवान  को सम्बोधित करने का अर्थ है कि हम  भगवान को पुकारे जिससे भगवान  कि दृष्टि हमारी तरफ खिंच जाए .जैसे एक बच्चा अपनी माँ  को पुकारता है तो उन माताओं का चित्त भी उस बच्चे की  ओर  आकृष्ट हो जाता है , जिनके छोटे बच्चे होते  हैं . पर उठकर वही माँ दौड़ेगी जिसको वह बच्चा अपनी माँ  मानता है . 
 
करोड़ों  ब्रह्माण्ड भगवान के एक – एक रोम में हैं बसते हैं . दशरथ  के घर जन्म लेने वाले भी राम है और जो निर्गुण निराकार रूप से सब जगह रम रहें  है , उस परमात्मा का नाम भी राम है .  नाम निर्गुण ब्रह्म और सगुण राम  दोनों से बड़ा है .
 
भगवान स्वयं नामी कहलाते हैं .  भगवान  परमात्मा अनामय है अर्थात विकार रहित है . उसका न नाम है , न रूप है उनको जानने के लिए उनका नाम   रख कर सम्बोधित किया जाता  है , क्योंकि हम लोग नाम रूप में बैठे हैं इसलिए उसे ब्रह्म कहते हैं . जिस अनंत, नित्यानंद और चिन्मय परमब्रह्म में योगी लोग रमण  करते हैं उसी राम-नाम से परमब्रह्म प्रतिपादित होता है अर्थात राम नाम ही परमब्रह्म है .
 
अनंत नामों में मुख्य राम नाम है . भगवान के गुण आदि को लेकर कई नाम आयें हैं, उनका जप किया जाये तो भगवान के गुण , प्रभाव, तत्व ,लीला आदि याद आयेंगें . भगवान के नामों से भगवान के चरित्र की याद आती है . भगवान के चरित्र अनंत हैं . उन चरित्र को लेकर नाम जप भी अनंत  ही होगा .
  
राम नाम में अखिल सृष्टि समाई हुई है 
 
वाल्मीकि ने सौ करोड़ श्लोकों की रामायण बनाई , तो  सौ करोड़ श्लोकों की रामायण को भगवान शंकर के आगे रख दिया जो सदैव  राम नाम जपते रहते हैं . उन्होनें उसका उपदेश पार्वती  को दिया . शंकर ने रामायण के तीन विभाग कर त्रिलोक में बाँट दिया . तीन लोकों  को तैंतीस – तैंतीस  करोड़ दिए तो एक करोड़ बच  गया . उसके भी तीन टुकड़े किए  तो एक लाख बच  गया उसके भी तीन टुकड़े किये तो एक हज़ार बच और  उस एक हज़ार के भी तीन भाग किये तो सौ बच  गया . उसके भी तीन भाग किए  एक श्लोक बच गया . इस प्रकार एक करोड़  श्लोकों वाली रामायण के तीन भाग करते करते एक अनुष्टुप श्लोक बचा रह गया . एक अनुष्टुप छंद के श्लोक में बत्तीस अक्षर होते हैं उसमें दस –  दस करके तीनों को दे दिए तो अंत में  दो ही अक्षर बचे भगवान् शंकर ने यह दो अक्षर रा और म  आपने पास रख लिए . राम अक्षर  में ही पूरी रामायण है , पूरा शास्त्र है . 
 
  राम नाम वेदों के प्राण  के सामान है . शास्त्रों का और वर्णमाल का भी प्राण है . प्रणव को वेदों का प्राण माना जाता है . प्रणव तीन मात्रा वाल ॐ कार पहले ही प्रगट हुआ, उससे त्रिपदा गायत्री बनी और उससे वेदत्रय   . ऋक , साम और यजुः –  ये तीन प्रमुख वेद  बने .  इस प्रकार ॐ कार [ प्रणव ] वेदों का प्राण है . राम नाम को वेदों का प्राण माना  जाता है ,  क्योंकि राम नाम से प्रणव होता है . जैसे प्रणव से र निकाल दो तो केवल पणव  हो जाएगा अर्थात ढोल हो जायेगा . ऐसे ही ॐ में से म निकाल दिया जाए तो वह शोक का वाचक हो जाएगा . प्रणव में र और ॐ में म कहना आवश्यक है . इसलिए राम नाम वेदों का प्राण भी है .
 
नाम और रूप दोनों ईश्वर कि उपाधि हैं . भगवान् के नाम और रूप दोनों अनिर्वचनीय हैं, अनादि है . सुन्दर, शुद्ध ,  भक्ति युक्त बुद्धि से ही इसका दिव्य अविनाशी स्वरुप जानने में आता है . 
 
राम नाम लोक और परलोक में निर्वाह करने वाला होता है  . लोक में यह देने वाला  चिंतामणि और परलोक में भगवत्दर्शन कराने वाला  है. वृक्ष में जो शक्ति है वह बीज से ही आती है इसी प्रकार  अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा में जो शक्ति है वह राम नाम से आती ही .
 
राम नाम अविनाशी और व्यापक रूप से सर्वत्र परिपूर्ण है . सत् है , चेतन है और आनंद राशि है . उस आनंद रूप परमात्मा से कोई जगह खाली  नही , कोई समय खाली नहीं , कोई व्यक्ति खाली नही कोई प्रकृति  खाली नही  ऐसे परिपूर्ण ,  ऐसे अविनाशी वह निर्गुण है . वस्तुएं नष्ट जाती है,  व्यक्ति नष्ट हो जाते हैं ,  समय का परिवर्तन हो जाता है, देश बदल जाता  है , लेकिन यह सत् – तत्व ज्यों -त्यों  ही रहता है इसका विनाश नही होता है इसलिए यह सत्  है . 
 
राम नाम कि महिमा 
 
1) जीभ वागेन्द्रिय है उससे राम राम जपने से उसमें इतनी अलौकिकता आ जाती है की ज्ञानेन्द्रिय और उसके आगे अंतःकरण और अन्तः कारण से आगे प्रकृति और  प्रकृति से अतीत परमात्मा तत्व है , उस परमात्मा तत्व को यह नाम जाना दे ऐसी उसमें शक्ति है . 
 
2 ) राम नाम मणिदीप है . एक दीपक होता है एक मणिदीप होता है .  तेल का दिया दीपक कहलाता है मणिदीप स्वतः प्रकाशित  होती है . जो मणिदीप है वह कभी बुझती नहीं है . जैसे दीपक को चौखट पर रख देने से घर के अंदर  और भर दोनों हिस्से  प्रकाशित हो जाते हैं वैस ही राम नाम को जीभ पर रखने से  अंतःकरण और बाहरी आचरण दोनों प्रकाशित हो जाते हैं . 
 
3 ) यानी भक्ति को यदि ह्रदय में बुलाना  हो तो,  राम नाम का जप करो इससे भक्ति दौड़ी चली आएगी .
 
4 ) अनेक जन्मों से युग युगांतर से जिन्होंने पाप किये हों उनके ऊपर राम नाम की दीप्तिमान अग्नि रख देने से  सारे पाप कटित हो जाते हैं . 
 
5 ) राम के दोनों अक्षर मधुर और सुन्दर हैं . मधुर का अर्थ रचना में रस मिलता हुआ और  मनोहर कहने का अर्थ है की मन को अपनी और खींचता  है . राम राम कहने से मुंह में मिठास पैदा  होती है . दोनों अक्षर वर्णमाल की दो आँखें हैं .राम के बिना वर्णमाला भी अंधी है. 
 
6 ) जगत में सूर्य पोषण करता है और चन्द्रना अमृत वर्षा करता है  है . राम नाम विमल है जैसे सूर्य और चंद्रमा को राहु –  केतु ग्रहण लगा देते हैं , लेकिन राम नाम पर कभी ग्रहण नहीं लगता है . चन्द्रमा घटता –  बढता रहता है लेकिन राम तो सदैव बढता रहता है .यह सदा शुद्ध  है अतः यह निर्मल चन्द्रमा और तेजश्वी सूर्य के समान है . 
 
7 ) अमृत के स्वाद और तृप्ति के सामान राम नाम है . राम कहते समय मुंह खुलता है और म कहने पर बंद होता है . जैसे भोजन करने पर मुख खुला होता है और तृप्ति होने पर मुंह बंद होता है . इसी प्रकार  रा और म अमृत के स्वाद और तोष के सामान हैं .
  
8 ) छह कमलों में एक नाभि कमल [ चक्र ] है उसकी पंखुड़ियों में भगवान के नाम है , वे भी दिखने लग जाते हैं . आँखों में जैसे सभी बाहरी  ज्ञान होता है ऐसे नाम जाप से बड़े बड़े शास्त्रों का ज्ञान हो जाता है , जिसने  पढ़ाई नहीं की , शास्त्र शास्त्र  नहीं पढ़े उनकी वाणी में भी वेदों की ऋचाएं आती है. वेदों का ज्ञान उनको स्वतः हो जाता है .
  
9 ) राम नाम निर्गुण और सगुण के बीच सुन्दर साक्षी है . यह दोनों के बीच का वास्तविक ज्ञान करवाने वाला चतुर दुभाषिया है . नाम सगुण  और निर्गुण दोनों  से श्रेष्ट चतुर दुभाषिया है . 
 
10 ) राम जाप से रोम रोम पवित्र हो जाता है . साधक  ऐसा पवित्र हो जाता है उसके दर्शन , स्पर्श भाषण से ही दूसरे पर असर पड़ता है . अनिश्चिता दूर होती है शोक –  चिंता दूर होते हैं , पापों का नाश होता है .  वे जहां रहते हैं वह धाम बन जाता है वे जहां चलते हैं वहां का वायुमंडल पवित्र  हो जाता है . 
 
कैसे लें राम – नाम 
 
परमात्मा ने अपनी पूरी पूरी शक्ति राम नाम में रख दी है . नाम जप के लिए कोई स्थान, पात्र विधि की जरुरत नही है . रात दिन राम नाम का जप करो निषिद्ध पापाचरण आचरणों से स्वतः ग्लानी हो जायेगी .  अभी अंतकरण मैला है इसलिए मलिनता अच्छी लगती है मन के शुद्ध  होने पर मैली वस्तुओं कि अकांक्षा नहीं रहेगी  . जीभ से राम राम शुरू कर दो मन की परवाह मत करो . ऐसा मत सोचो कि  मन नहीं लग रहा है तो  जप निरर्थक चल रहा है . जैसे आग बिना मन के छुएंगे तो भी वह जलायेगी ही .  ऐसे ही भगवान् का नाम किसी तरह से लिया जाए , अंतर्मन को निर्मल करेगा ही . अभी मन नहीं लग रहा है तो परवाह नहीं करो , क्योंकि आपकी नियत तो मन लगाने की है तो मन लग जाएगा . भगवान  ह्रदय की बात  देखते हैं की यह मन लगाना चाहता है , लेकिन मन नहीं लग पा रहा है .इसलिए मन नहीं लगे तो घबराओ मत और जाप करते करते मन लगाने का प्रयत्न  करो .
 
सोते समय सभी इन्द्रिय मन में , मन बुध्दि में , बुद्धि प्रकृति  में अर्थात अविद्या में लीन हो जाती है , गाढ़ी नींद में जब सभी इन्द्रियां लीन  होती है उस पर भी उस व्यक्ति को पुकारा जाए तो वह अविद्या से जग जाता है . राम नाम में  अपार  शन्ति , आनंद और शक्ति भरी हुई है . यह सुनने और  स्मरण करने में सुन्दर और मधुर है . राम नाम जप करने  से यह अचेतन – मन में बस जाता है उसके बाद अपने आप से राम राम जप होने लगता है करना नहीं पड़ता है  . रोम रोम उच्चारण करता है . चित्त इतना  खिंच जाता है की छुडाये नहीं छुटता .
 
राम राम राम 
 
भगवान शरण में आने वाले को मुक्ति देते हैं लेकिन भगवान का नाम उच्चारण  मात्र से मुक्ति दे देता है . जैसे छत्र का आश्रय लेने वाल छत्रपति हो जाता है ,  वैसे ही राम रूपी धन जिसके पास है वही  असली धनपति है . सुगति रूपी जो सुधा है वह सदा के लिए तृप्त करने वाली होती है . जिस लाभ के बाद में कोई लाभ नहीं बच जाता  है जहां कोई दुःख नहीं पहुँच सकता है ऐसे महान आनंद को राम नाम प्राप्त  करवाता है

             
श्री राम जय राम जय जय राम।।
जय जय विघ्न हरण हनुमान ।।


(साभार -  डॉ0 विजय शंकर मिश्र)

देवों की वंशावली



देवों की वंशावली 


(Courtesy - Unknown WhatsApp forwarded message)

"त्वमेव माता च पिता त्वमेव"

सामान्य से श्लोक का गूढ़तम भावार्थ

"त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या च द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वम् मम देवदेवं।।"

सरल-सा अर्थ है, 
'हे भगवान! 
तुम्हीं माता हो, 
तुम्हीं पिता, 
तुम्हीं बंधु, 
तुम्हीं सखा हो। 
तुम्हीं विद्या हो, 
तुम्हीं द्रव्य, 
तुम्हीं सब कुछ हो।
मेरे देवता हो।'

बचपन से प्रायः सबने पढ़ी है। छोटी और सरल है इसलिए रटा दी गई है। 
बस त्वमेव माता भर बोल दो, सामने वाला तोते की तरह पूरा श्लोक सुना देता है।

मैंने 'अपने रटे हुए' कम से कम 50 मित्रों से पूछा होगा, 
'द्रविणं' का क्या अर्थ है? 
संयोग देखिए एक भी न बता पाया। अच्छे खासे पढ़े-लिखे भी। एक ही शब्द 'द्रविणं' पर  सोच में पड़ गए।

द्रविणं पर चकराते हैं और अर्थ जानकर चौंक पड़ते हैं। 
द्रविणं जिसका अर्थ है द्रव्य, धन-संपत्ति। द्रव्य जो तरल है, निरंतर प्रवाहमान। यानी वह जो कभी स्थिर नहीं रहता।

कितनी सुंदर प्रार्थना है और उतना ही प्रेरक उसका 'वरीयता क्रम'। ज़रा देखिए तो ! समझिए तो !

सबसे पहले माता क्योंकि वह है तो फिर संसार में किसी की जरूरत ही नहीं। इसलिए हे प्रभु! तुम माता हो!

फिर पिता, अतः हे ईश्वर! तुम पिता हो ! दोनों नहीं हैं तो फिर भाई ही काम आएंगे। इसलिए तीसरे क्रम पर भगवान से भाई का रिश्ता जोड़ा है।

जिसकी न माता रही, न पिता, न भाई तब सखा काम आ सकते हैं, अतः सखा त्वमेवं !

वे भी नहीं तो आपकी विद्या ही काम आना है। यदि जीवन के संघर्ष में नियति ने आपको निपट अकेला छोड़ दिया है तब आपका ज्ञान ही आपका भगवान बन सकेगा। यही इसका संकेत है।

और सबसे अंत में 'द्रविणं' अर्थात धन। जब कोई पास न हो तब हे देवता तुम्हीं धन हो।

रह-रहकर सोचता हूं कि प्रार्थनाकार ने वरीयता क्रम में जो धन-द्रविणं सबसे पीछे है, हमारे आचरण में सबसे ऊपर क्यों आ जाता है? इतना कि उसे ऊपर लाने के लिए माता से पिता तक, बंधु से सखा तक सब नीचे चले जाते हैं, पीछे छूट जाते हैं।

वह कीमती है, पर उससे ज्यादा कीमती और भी हैं, उससे बहुत ऊँचे आपके अपने।

अनगिनत प्यारी से प्यारी प्रार्थनाओं में न जाने क्यों अनजाने ही एक अद्भुत वरीयता क्रम दर्शाती यह प्रार्थना मुझे जीवन के सूत्र और रिश्तों के मर्म सिखाती रहती है। 

बार-बार ख्याल आता है, द्रविणं सबसे पीछे बाकी रिश्ते ऊपर। बाकी लगातार ऊपर से ऊपर, धन क्रमश: नीचे से नीचे !

इस अनूठी प्रार्थना का यह पारिवारिक पक्ष' और 'द्रविणं' की औकात पर मित्रों से सत्संग होता है, एक बात कहना नहीं भूलता !

याद रखिये दुनिया में झगड़ा रोटी का नहीं थाली का है ! वरना वह रोटी तो सबको देता ही है !

चांदी की थाली यदि कभी आपके वरीयता क्रम को पलटने लगे, तो इस प्रार्थना को जरूर याद कर लीजिये।
 
हमेशा ख्याल रहे कि क्रम माता च पिता, बंधु _च सखा है.....

🙏 जय श्रीकृष्ण जय श्रीराम। 🙏


(Courtesy - Unknown WhatsApp forwarded message)

Monday 11 May 2020

देव मूर्ति की परिक्रमा ।

🥀⚘जय श्री राधे ⚘🥀
किस देवता की, कितनी परिक्रमा करे ?

जब हम मंदिर जाते है तो हम भगवान की परिक्रमा जरुर लगाते है. पर क्या कभी हमने ये सोचा है कि देव मूर्ति की परिक्रमा क्यो की जाती है ? 

शास्त्रों में लिखा है जिस स्थान पर मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा हुई हो, उसके मध्य बिंदु से लेकर कुछ दूरी तक दिव्य प्रभा अथवा प्रभाव रहता है,यह निकट होने पर अधिक गहरा और दूर दूर होने पर घटता जाता है, इसलिए प्रतिमा के निकट परिक्रमा करने से दैवीय शक्ति के ज्योतिर्मडल से निकलने वाले तेज की सहज ही प्राप्ती हो जाती है.
मंदिर में दैवीय शक्तियों का प्रवाह उत्तर से दक्षिण की ओर होता है। बाईं तरफ से परिक्रमा करने पर सकारात्मक ऊर्जा का हमारे अंदर विद्यामान ऊर्जा से टकराव होने पर हमारा तेज कम हो जाता है। परिक्रमा करते समय बीच-बीच में रुकना नहीं चाहिए अौर न ही किसी से बात करनी चाहिए। परिक्रमा नंगे पाव की जाती है। 

कैसे करे परिक्रमा
देवमूर्ति की परिक्रमा सदैव दाएं हाथ की ओर से करनी चाहिए क्योकि दैवीय शक्ति की आभामंडल की गति दक्षिणावर्ती होती है।बाएं हाथ की ओर से परिक्रमा करने पर दैवीय शक्ति के ज्योतिर्मडल की गति और हमारे अंदर विद्यमान दिव्य परमाणुओं में टकराव पैदा होता है, जिससे हमारा तेज नष्ट हो जाता है.जाने-अनजाने की गई उल्टी परिक्रमा का दुष्परिणाम भुगतना पडता है.

किस देव की कितनी परिक्रमा करनी चाहिये ?
वैसे तो सामान्यत: सभी देवी-देवताओं की एक ही परिक्रमा की जाती है परंतु शास्त्रों के अनुसार अलग-अलग देवी-देवताओं के लिए परिक्रमा की अलग संख्या निर्धारित की गई है। इस संबंध में धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि भगवान की परिक्रमा करने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है और इससे हमारे पाप नष्ट होते है.सभी देवताओं की परिक्रमा के संबंध में अलग-अलग नियम बताए गए हैं.

1. - महिलाओं द्वारा "वटवृक्ष" की परिक्रमा करना सौभाग्य का सूचक है.

2. - "शिवजी" की आधी परिक्रमा की जाती है.है शिव जी की परिक्रमा करने से बुरे खयालात और अनर्गल स्वप्नों का खात्मा होता है।भगवान शिव की परिक्रमा करते समय अभिषेक की धार को न लांघे.

3. - "देवी मां" की एक परिक्रमा की जानी चाहिए.

4. - "श्रीगणेशजी और हनुमानजी" की तीन परिक्रमा करने का विधान है.गणेश जी की परिक्रमा करने से अपनी सोची हुई कई अतृप्त कामनाओं की तृप्ति होती है.गणेशजी के विराट स्वरूप व मंत्र का विधिवत ध्यान करने पर कार्य सिद्ध होने लगते हैं.

5. श्री कृष्ण की चार परिक्रमा करने से पुण्य प्राप्त होता हैै। भगवान विष्णुजी" एवं उनके सभी अवतारों की चार परिक्रमा करनी चाहिए.विष्णु जी की परिक्रमा करने से हृदय परिपुष्ट और संकल्प ऊर्जावान बनकर सकारात्मक सोच की वृद्धि करते हैं.

6. - सूर्य मंदिर की सात परिक्रमा करने से मन पवित्र और आनंद से भर उठता है तथा बुरे और कड़वे विचारों का विनाश होकर श्रेष्ठ विचार पोषित होते हैं. हमें भास्कराय मंत्र का भी उच्चारण करना चाहिए, जो कई रोगों का नाशक है जैसे सूर्य को अर्घ्य देकर  "ॐ भास्कराय नमः"  का जाप करना.देवी के मंदिर में महज एक परिक्रमा कर नवार्ण मंत्र का ध्यान जरूरी है.इससे सँजोए गए संकल्प और लक्ष्य सकारात्मक रूप लेते हैं.

परिक्रमा के संबंध में नियम
१.  परिक्रमा शुरु करने के पश्चात बीच में रुकना नहीं चाहिए.साथ परिक्रमा वहीं खत्म करें जहां से शुरु की गई थी.ध्यान रखें कि परिक्रमा बीच में रोकने से वह पूर्ण नही मानी जाती

२.  परिक्रमा के दौरान किसी से बातचीत कतई ना करें.जिस देवता की परिक्रमा कर रहे हैं, उनका ही ध्यान करें.

३.  उलटी अर्थात बाये हाथ की तरफ परिक्रमा नहीं करनी चाहिये.

इस प्रकार देवी-देवताओं की परिक्रमा विधिवत करने से जीवन में हो रही उथल-पुथल व समस्याओं का समाधान सहज ही हो जाता है.इस प्रकार सही परिक्रमा करने से पूर्ण लाभ की प्राप्ती होती है.

जय जय श्री राधे...

(साभार - श्री हरि मंदिर चण्डीगढ)

हिन्दुओं के संप्रदाय...

प्राचीनकाल में देव, नाग, किन्नर, असुर, गंधर्व, भल्ल, वराह, दानव, राक्षस, यक्ष, किरात, वानर, कूर्म, कमठ, कोल, यातुधान, पिशाच, बेताल, चारण आदि जातियां हुआ करती थीं। देव और असुरों के झगड़े के चलते धरती के अधिकतर मानव समूह दो भागों में बंट गए। पहले बृहस्पति और शुक्राचार्य की लड़ाई चली, फिर गुरु वशिष्ठ और विश्‍वामित्र की लड़ाई चली। इन लड़ाइयों के चलते समाज दो भागों में बंटता गया।

हजारों वर्षों तक इनके झगड़े के चलते ही पहले सुर और असुर नाम की दो धाराओं का धर्म प्रकट हुआ, यही आगे चलकर यही वैष्णव और शैव में बदल गए। लेकिन इस बीच वे लोग भी थे, जो वेदों के एकेश्वरवाद को मानते थे और जो ब्रह्मा और उनके पुत्रों की ओर से थे। इसके अलावा अनीश्वरवादी भी थे। कालांतर में वैदिक और चर्वाकवादियों की धारा भी भिन्न-भिन्न नाम और रूप धारण करती रही।

शैव और वैष्णव दोनों संप्रदायों के झगड़े के चलते शाक्त धर्म की उत्पत्ति हुई जिसने दोनों ही संप्रदायों में समन्वय का काम किया। इसके पहले अत्रि पुत्र दत्तात्रेय ने तीनों धर्मों (ब्रह्मा, विष्णु और शिव के धर्म) के समन्वय का कार्य भी किया। बाद में पुराणों और स्मृतियों के आधार पर जीवन-यापन करने वाले लोगों का संप्रदाय ‍बना जिसे स्मार्त संप्रदाय कहते हैं।

इस तरह वेद और पुराणों से उत्पन्न 5 तरह के संप्रदायों माने जा सकते हैं:- 
1. वैष्णव, 2. शैव, 3. शाक्त, 4 स्मार्त और  5. वैदिक संप्रदाय। 

वैष्णव जो विष्णु को ही परमेश्वर मानते हैं, शैव जो शिव को परमेश्वर ही मानते हैं, शाक्त जो देवी को ही परमशक्ति मानते हैं और स्मार्त जो परमेश्वर के विभिन्न रूपों को एक ही समान मानते हैं। अंत में वे लोग जो ब्रह्म को निराकार रूप जानकर उसे ही सर्वोपरि मानते हैं। 

हालांकि सभी संप्रदाय का धर्मग्रंथ वेद ही है। सभी संप्रदाय वैदिक धर्म के अंतर्गत ही आते हैं लेकिन आजकल यहां भेद करना जरूर हो चला है, क्योंकि बीच-बीच में ब्रह्म समाज, आर्य समाज और इसी तरह के प्राचीनकालीन समाजों ने स्मृति ग्रंथों का विरोध किया है। जो ग्रंथ ब्रह्म (परमेश्वर) के मार्ग से भटकाए, वे सभी अवैदिक माने गए हैं।

वैष्णव संप्रदाय के उप संप्रदाय : 
वैष्णव के बहुत से उप संप्रदाय हैं - जैसे बैरागी, दास, रामानंद, वल्लभ, निम्बार्क, माध्व, राधावल्लभ, सखी, गौड़ीय आदि। वैष्णव का मूलरूप आदित्य या सूर्य देव की आराधना में मिलता है। भगवान विष्णु का वर्णन भी वेदों में मिलता है। पुराणों में विष्णु पुराण प्रमुख है। विष्णु का निवास समुद्र के भीतर माना गया है।

विष्णु के अवतार : शास्त्रों में विष्णु के 24 अवतार बताए हैं, लेकिन प्रमुख 10 अवतार माने जाते हैं - मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बु‍द्ध और कल्कि।

24 अवतारों का क्रम निम्न है-
1. आदि परषु, 2. चार सनतकुमार, 3. वराह, 4. नारद, 
5. नर-नारायण, 6. कपिल, 7. दत्तात्रेय, 8. याज्ञ, 
9. ऋषभ, 10. पृथु, 11. मत्स्य, 12. कच्छप, 
13. धन्वंतरि, 14. मोहिनी, 15. नृसिंह, 16. हयग्रीव, 
17. वामन, 18. परशुराम, 19. व्यास, 20. राम,
21. बलराम, 22. कृष्ण, 23. बुद्ध और 24. कल्कि।

वैष्णव ग्रंथ : ऋग्वेद में वैष्णव विचारधारा का उल्लेख मिलता है। ईश्वर संहिता, पाद्मतन्त, विष्णु संहिता, शतपथ ब्राह्मण, ऐतरेय ब्राह्मण, महाभारत, रामायण, विष्णु पुराण आदि।

वैष्णव पर्व और व्रत :  एकादशी, चातुर्मास, कार्तिक मास, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, होली, दीपावली आदि।

वैष्णव तीर्थ : बद्रीधाम , मथुरा , अयोध्या , तिरुपति बालाजी, श्रीनाथ, द्वारकाधीश।

वैष्णव संस्कार : 
1. वैष्णव मंदिर में विष्णु, राम और कृष्ण की मूर्तियां होती हैं। एकेश्‍वरवाद के प्रति कट्टर नहीं है। 
2. इसके संन्यासी सिर मुंडाकर चोटी रखते हैं। 
3. इसके अनुयायी दशाकर्म के दौरान सिर मुंडाते वक्त चोटी रखते हैं। 
4. ये सभी अनुष्ठान दिन में करते हैं। 
5. ये सात्विक मंत्रों को महत्व देते हैं। 
6. जनेऊ धारण कर पितांबरी वस्त्र पहनते हैं और हाथ में कमंडल तथा दंडी रखते हैं। 
7. वैष्णव सूर्य पर आधारित व्रत उपवास करते हैं। 
8. वैष्णव दाह-संस्कार की रीति है। 
9. यह चंदन का तिलक खड़ा लगाते हैं। 

वैष्णव साधु-संत :  वैष्णव साधुओं को आचार्य, संत, स्वामी आदि कहा जाता है।

शैव संप्रदाय के उप संप्रदाय : शैव में शाक्त, नाथ, दसनामी, नाग आदि उप संप्रदाय हैं। महाभारत में माहेश्वरों (शैव) के 4 संप्रदाय बतलाए गए हैं- शैव, पाशुपत, कालदमन और कापालिक। शैव मत का मूल रूप ॠग्वेद में रुद्र की आराधना में है। 12 रुद्रों में प्रमुख रुद्र ही आगे चलकर शिव, शंकर, भोलेनाथ और महादेव कहलाए। इनकी पत्नी का नाम है पार्वती जिन्हें दुर्गा भी कहा जाता है। शिव का निवास कैलाश पर्वत पर माना गया है।

शिव के अवतार :  शिव पुराण में शिव के भी दशावतारों के अलावा अन्य का वर्णन मिलता है, जो निम्नलिखित है- 
1. महाकाल, 2. तारा, 3. भुवनेश, 4. षोडश, 
5. भैरव, 6. छिन्नमस्तक गिरिजा, 7. धूम्रवान, 8. बगलामुखी, 
9. मातंग और 10. कमल नामक अवतार हैं। ये दसों अवतार तंत्रशास्त्र से संबंधित हैं।

शिव के अन्य 11 अवतार
1. कपाली, 2. पिंगल, 3. भीम, 4. विरुपाक्ष, 
5. विलोहित, 6. शास्ता, 7. अजपाद, 8. आपिर्बुध्य, 
9. शम्भू, 10. चण्ड तथा 11. भव का उल्लेख मिलता है।

इन अवतारों के अलावा शिव के दुर्वासा, हनुमान, महेश, वृषभ, पिप्पलाद, वैश्यानाथ, द्विजेश्वर, हंसरूप, अवधूतेश्वर, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, ब्रह्मचारी, सुनटनतर्क, द्विज, अश्वत्थामा, किरात और नतेश्वर आदि अवतारों का उल्लेख भी 'शिव पुराण' में हुआ है जिन्हें अंशावतार माना जाता है।

शैव ग्रंथ :  वेद का श्‍वेताश्वतरा उपनिषद, शिव पुराण , आगम ग्रंथ और तिरुमुराई।

शैव व्रत और त्योहार : चतुर्दशी, श्रावण मास, शिवरा‍त्रि, रुद्र जयं‍‍ती, भैरव जयंती आदि।

शैव तीर्थ : १२ ज्योतिर्लिंगों में खास काशी , बनारस , केदारनाथ , सोमनाथ , रामेश्वरम , चिदम्बरम , अमरनाथ  और कैलाश मानसरोवर  ।

शैव संस्कार :
1. शैव संप्रदाय के लोग एकेश्वरवादी होते हैं। 
2. इसके संन्यासी जटा रखते हैं। 
3. इसमें सिर तो मुंडाते हैं, लेकिन चोटी नहीं रखते। 
4. इनके अनुष्ठान रात्रि में होते हैं। 
5. इनके अपने तांत्रिक मंत्र होते हैं। 
6. ये निर्वस्त्र भी रहते हैं, भगवा वस्त्र भी पहनते हैं और हाथ में कमंडल, चिमटा रखकर धूनी भी रमाते हैं। 
7. शैव चन्द्र पर आधारित व्रत-उपवास करते हैं। 
8. शैव संप्रदाय में समाधि देने की परंपरा है। 
9. शैव मंदिर को शिवालय कहते हैं, जहां सिर्फ शिवलिंग होता है। 
10. ये भभूति तिलक आड़ा लगाते हैं।

शैव साधु-संत : शैव साधुओं को नाथ, अघोरी, अवधूत, बाबा, ओघड़, योगी, सिद्ध आदि कहा जाता है।

नोट :- मान्यता है कि हिन्दू धर्म में आमजनों को अग्निदाह और साधुओं को समाधि दी जाती है। उक्त जानकारी आमजनों के समझने हेतु संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत की गई है। इसे पूर्ण न समझा जाए।

शाक्त धर्म : मां पार्वती को शक्ति भी कहते हैं। वेद, उपनिषद और गीता में शक्ति को प्रकृति कहा गया है। प्रकृति कहने से अर्थ वह प्रकृति नहीं हो जाती। हर मां प्रकृति है। जहां भी सृजन की शक्ति है, वहां प्रकृति ही मानी गई है इसीलिए मां को प्रकृति कहा गया है। प्रकृति में ही जन्म देने की शक्ति है।

शाक्त संप्रदाय को शैव संप्रदाय के अंतर्गत माना जाता है। शाक्तों का मानना है कि दुनिया की सर्वोच्च शक्ति स्त्रैण है इसीलिए वे देवी दुर्गा को ही ईश्वर रूप में पूजते हैं। सिन्धु घाटी की सभ्यता में भी मातृदेवी की पूजा के प्रमाण मिलते हैं। शाक्त संप्रदाय प्राचीन संप्रदाय है। गुप्तकाल में यह उत्तर-पूर्वी भारत, कम्बोडिया, जावा, बोर्निया और मलाया प्राय:द्वीपों के देशों में लोकप्रिय था। बौद्ध धर्म के प्रचलन के बाद इसका प्रभाव कम हुआ।

मां पार्वती : मां पार्वती का मूल नाम सती है। ये 'सती' शब्द बिगड़कर शक्ति हो गया। पुराणों के अनुसार सती के पिता का नाम दक्ष प्रजा‍पति और माता का नाम मेनका है। पति का नाम शिव और पुत्र कार्तिकेय तथा गणेश हैं। यज्ञ में स्वाहा होने के बाद सती ने ही पार्वती के रूप में हिमालय के यहां जन्म लिया था।

इन्हें हिमालय की पुत्री अर्थात उमा हैमवती भी कहा जाता है। दुर्गा ने महिषासुर, शुम्भ, निशुम्भ आदि राक्षसों का वध करके जनता को कुतंत्र से मुक्त कराया था। उनकी यह पवित्र गाथा मार्केण्डेय पुराण में मिलती है। उन्होंने विष्णु के साथ मिलकर मधु और कैटभ का भी ‍वध किया था।

भैरव, गणेश और हनुमान : अकसर जिक्र होता है कि मां दुर्गा के साथ भगवान भैरव, गणेश और हनुमानजी हमेशा रहते हैं। प्राचीन दुर्गा मंदिरों में आपको भैरव और हनुमानजी की मूर्तियां अवश्य मिलेंगी। दरअसल, भगवान भैरव दुर्गा की सेना के सेनापति माने जाते हैं और उनके साथ हनुमानजी का होना इस बात का प्रमाण है कि राम के काल में ही पार्वती के शिव थे।

प्रमुख पर्व नवदुर्गा : मार्कण्डेय पुराण में परम गोपनीय साधन, कल्याणकारी देवी कवच एवं परम पवित्र उपाय संपूर्ण प्राणियों की रक्षार्थ बताया गया है। जो देवी की ९ मूर्तियांस्वरूप हैं जिन्हें 'नवदुर्गा' कहा जाता है, उनकी आराधना आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से महानवमी तक की जाती है।

धर्म ग्रंथ : शाक्त संप्रदाय में देवी दुर्गा के संबंध में 'श्रीदुर्गा भागवत पुराण' एक प्रमुख ग्रंथ है जिसमें १०८ देवी पीठों का वर्णन किया गया है। उनमें से भी ५१-५२ शक्तिपीठों का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसी में दुर्गा सप्तशती भी है।

शाक्त धर्म का उद्देश्य : सभी का उद्देश्य मोक्ष है फिर भी शक्ति का संचय करो। शक्ति की उपासना करो। शक्ति ही जीवन है, शक्ति ही धर्म है, शक्ति ही सत्य है, शक्ति ही सर्वत्र व्याप्त है और शक्ति की हम सभी को आवश्यकता है। बलवान बनो, वीर बनो, निर्भय बनो, स्वतंत्र बनो और शक्तिशाली बनो। तभी तो नाथ और शाक्त संप्रदाय के साधक शक्तिमान बनने के लिए तरह-तरह के योग और साधना करते रहते हैं। सिद्धियां प्राप्त करते रहते हैं।

वेदों को श्रुति ग्रंथ कहा जाता है अर्थात जिस ज्ञान को परमेश्वर से सुनकर जाना गया। वेदों को छोड़कर सभी ग्रंथ स्मृति ग्रंथ कहलाते हैं अर्थात जिस ज्ञान को परंपरा के माध्यम से जाना या जिसे स्मृतियों के आधार पर जाना। अधिकतर लोग इस संप्रदाय का नाम शंकराचार्य से जोड़ते हैं। शंकराचार्य ने तो दसनामी संप्रदाय की स्थापना की थी, जो सभी शिव के उपासक शैव पंथ से हैं।

धर्मग्रंथ : सभी पुराण, स्मृतियां।

प्रमुख देवता : शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य एवं गणेश।

स्मृति ग्रंथों में मनु स्मृति सहित सभी स्मृतियां और पुराण आते हैं। वेदों को छोड़कर जो इन ग्रंथों पर आधारित जीवन-यापन करते हैं उनको स्मार्त संप्रदाय का माना जाता है। जैसे जो विष्णु को भी माने और शिव को भी, दुर्गा को भी और अन्य देवी-देवताओं का भी पूजन करें, वे सभी स्मार्त संप्रदाय के हैं। अधिकतर हिन्दू स्मार्त संप्रदाय के ही हैं ।

वैदिक संप्रदाय : हालांकि सभी संप्रदाय का धर्मग्रंथ वेद ही है। सभी संप्रदाय वैदिक धर्म के अंतर्गत ही आते हैं लेकिन आजकल यहां भेद करना जरूर हो चला है, क्योंकि बीच-बीच में ब्रह्म समाज, आर्य समाज और इसी तरह के प्राचीनकालीन समाजों ने स्मृति ग्रंथों का विरोध किया है।

संत मत : भारत के संत मत को भी वैदिक संप्रदाय का माना जाता है जैसे कबीर, दादू आदि सभी एकेश्‍वरवाद पर ही जोर देते हैं।

वैदिक धर्म - कर्म पर आधारित हैं। इसमें एक परमेश्‍वर को ही सर्वोपरि शक्ति माना जाता है।


🌹🌷🚩 श्री राम जय राम जय जय राम 🌹🌷🚩 
🌹🌺🌷 जय जय विघ्न हरण हनुमान 🌹🌺🌷



(Courtesy - Unknown WhatsApp forwarded message)

Sunday 10 May 2020

हिन्दू धर्म में तिलक ।

हिन्दू धर्म में जब भी कभी कोई पूजा हो या कोई भी मांगलिक कार्य हो उसकी शुरुआत तिलक के साथ ही की जाती हैं। इसी के साथ ही मंदिर में या लोग सुबह घर से निकलने के दौरान भी तिलक लगाकर निकलते हैं । धार्मिक नजरिए से माथे पर तिलक लगाने से भगवान का आशीर्वाद मिलता है। वहीं वैज्ञानिक नजरिए की बात की जाए तो  दोनों आंखों के बीच में आज्ञा चक्र होता है। इस आज्ञा चक्र पर टीका लगाने पर हमारी एकाग्रता बढ़ती है। माथे पर तिलक लगाते समय उंगली का जो दबाव माथे पर बनता है उससे नसों का रक्त संचार काबू में रहता है और शरीर में नई ऊर्जा का संचार होने लगता है। तिलक लगाने से एकाग्रता में बढ़ोतरी होती है। शरीर से आलस्य दूर होता है और दिमागी शक्ति में इजाफा होता है और मानसिक तनाव से मुक्ति मिलती है । माथे पर नियमित रूप से तिलक लगाने से नाड़ी मंडल की परिशुद्ध सक्रियता से इनसोमनिया और साइनस जैसे रोग से छुटकारा मिलता है।

योगी लोग मेडिटेशन शुरू करने से पहले अपने माथे पर तिलक और त्रीपुण्ड लगाते है क्योंकि इसी जगह पर आज्ञा चक्र में उपस्थित पिण्ड में जुड़ी सभी नाड़ियों का समूह होता है। 

 पुराणों में वर्णन मिलता है कि संगम तट पर गंगा स्नान के बाद तिलक लगाने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। यही कारण है की स्नान करने के बाद पंडों द्वारा विशेष तिलक अपने भक्तों को लगाया जाता है। माथे पर तिलक लगाने के पीछे आध्यात्मिक महत्व है। दरअसल, हमारे शरीर में सात सूक्ष्म ऊर्जा केंद्र होते हैं, जो अपार शक्ति के भंडार हैं। इन्हें चक्र कहा जाता है। माथे के बीच में जहां तिलक लगाते हैं, वहां आज्ञाचक्र होता है। यह चक्र हमारे शरीर का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है, जहां शरीर की प्रमुख तीन नाडि़यां इड़ा, पिंगला व सुषुम्ना आकर मिलती हैं इसलिए इसे त्रिवेणी या संगम भी कहा जाता है। यह गुरु स्थान कहलाता है। यहीं से पूरे शरीर का संचालन होता है। यही हमारी चेतना का मुख्य स्थान भी है। इसी को मन का घर भी कहा जाता है। इसी कारण यह स्थान शरीर में सबसे ज्यादा पूजनीय है। योग में ध्यान के समय इसी स्थान पर मन को एकाग्र किया जाता है।

तिलक लगाने से एक तो स्वभाव में सुधार आता हैं व देखने वाले पर सात्विक प्रभाव पड़ता हैं। तिलक जिस भी पदार्थ का लगाया जाता हैं उस पदार्थ की ज़रूरत अगर शरीर को होती हैं तो वह भी पूर्ण हो जाती हैं। तिलक किसी खास प्रयोजन के लिए भी लगाये जाते हैं जैसे यदि मोक्षप्राप्ती करनी हो तो तिलक अंगूठे से, शत्रु नाश करना हो तो तर्जनी से, धनप्राप्ति हेतु मध्यमा से तथा शान्ति प्राप्ति हेतु अनामिका से लगाया जाता हैं। 

आमतौर से तिलक अनामिका द्वारा लगाया जाता हैं और उसमे भी केवल चंदन ही लगाया जाता हैं तिलक संग चावल लगाने से लक्ष्मी को आकर्षित करने का तथा ठंडक व सात्विकता प्रदान करने का निमित छुपा हुआ होता हैं। अतः प्रत्येक व्यक्ति को तिलक ज़रूर लगाना चाहिए।

हिंदू परिवारों में किसी भी शुभ कार्य में "तिलक या टीका" लगाने का विधान हैं। यह तिलक कई वस्तुओ और पदार्थों से लगाया जाता हैं। इनमें हल्दी, सिन्दूर, केशर, भस्म और चंदन आदि प्रमुख हैं, माथे पर हल्दी का चंदन लगाने से त्वचा शुद्ध होती है क्योंकि हल्दी में एंटी बेक्ट्रियल तत्व होते है जिससे रोगों से निजात मिलती है। माथे पर चंदन, रोली, कुमकुम, सिंदूर या भस्म का तिलक लगाया जाता है।  तिलक लगाने की केवल धार्मिक मान्यता नहीं है बल्कि इसके कई वैज्ञानिक कारण भी हैं।

हिंदू धर्म में जितने संतों के मत हैं, जितने पंथ है, संप्रदाय हैं उन सबके अपने अलग-अलग तिलक निशान होते हैं। तंत्र शास्त्र में पंच गंध या अस्ट गंध से बने तिलक लगाने का बड़ा ही महत्व है तंत्र शास्त्र में शरीर के तेरह भागों पर तिलक करने की बात कही गई है, लेकिन समस्त शरीर का संचालन मस्तिष्क करता है। इसलिए इस पर तिलक करने की परंपरा अधिक प्रचलित है। 

सिंदूर का तिलक
माथे पर सिंदूर का तिलक लगाने से देवी की विशेष कृपा प्राप्‍त होती है। आप चाहें तो शुक्रवार के दिन लाल सिंदूर का तिलक मां लक्ष्‍मी को चढ़ाने के साथ ही अपने माथे पर लगाएं। इससे आपका तनाव कम होने के साथ ही आपको मां लक्ष्‍मी की कृपा भी प्राप्‍त होगी। इसके अलावा आपके घर में सुख समृद्धि आती है और भौति क सुख-सुविधाओं में इजाफा होता है।

श्रीखंड चंदन का तिलक
शमी की लकड़ी से श्रीखंड चंदन का तिलक लगाने से शनि के दोष दूर होते हैं। शमी की लकड़ी को शनि की दशा दूर करने के लिए बहुत ही असरदार माना जाता है। शनिवार के दिन शमी के पेड़ के नीचे सरसों के तेल का दीपक जलाने से बहुत लाभ होता है।

भभूत का तिलक
भभूत या फिर श्‍मशान की भस्‍म से तिलक करने पर भगवान शिव की विशेष कृपा प्राप्‍त होती है। भभूत भगवान शिव की प्रिय वस्‍तुओं में से एक माना जाता है। भगवान शिव की पूजा में भभूत का प्रयोग अनिवार्य माना जाता है।

केसर और हल्‍दी का तिलक
केसर और हल्‍दी का सीधा संबंध गुरु ग्रह से होता है। अगर आपकी कुंडली में गुरु की दशा चल रही है तो आप रोजाना स्‍नान के बाद केसर या फिर हल्‍दी का तिलक लगाकर ही घर से किसी काम से निकलें। गुरुवार के दिन हल्‍दी और केसर का तिलक लगाने से विशेष लाभ होता है। ऐसा करने से गुरु ग्रह के सारे दोष खत्‍म हो जाते हैं। सफेद चंदन की लकड़ी को पत्थर पर घिसकर उसमें केसर मिलाकर लेप को माथे पर लगाना चाहिए या टीका लगाना चाहिए।

लाल चंदन
लाल चंदन का तिलक लगाने से गणेशजी प्रसन्‍न होते हैं। इसके साथ ही लाल चंदन का तिलक लगाने से सूर्य और बुध ग्रह भी मजबूत होते हैं। इसके साथ ही पूजा की सुपारी को घिसकर उसका तिलक माथे पर लगाने भी बुध की दशा में लाभ होता है।

एक मान्यता के अनुसार माथे के बीच खड़ा तिलक, भगवान श्रीराम के चरणों का द्योतक है। अंगूठे से गोल बिंदु व अनामिका से ऊपर की ओर लंबा तिलक ऊपर से रंगीन या गीले चावल लगाए जाते हैं।

🙏🙏


(Courtesy - Unknown WhatsApp forwarded message)