धार्मिक अनुष्ठान एवम् मान्यताएं।
हिन्दू धर्म के धार्मिक अनुष्ठनों एवम् मान्यताओं का महत्व।
Friday, 20 December 2024
Wednesday, 18 December 2024
महाकुंभ मेला ||
☀️ || महाकुंभ मेला ||☀️
{13 जनवरी 2025 }
पौष पूर्णिमा के दिन यानी 13 जनवरी 2025 को प्रयागराज में कुंभ मेले का आयोजन किया जाएगा और इस दिन पहला शाही स्नान भी होगा और महाशिवरात्रि के दिन अंतिम शाही स्नान के साथ समापन भी हो जाएगा।
🔸महाकुंभ में स्नान करने से सभी पाप हो जाते हैं नष्ट-:
साल 2025 में प्रयागराज के संगम किनारे इस मेले का आयोजन किया जा रहा है। संगम के दौरान गंगा और यमुना नदी का साक्षात रूप देखने को मिलता है और सरस्वती नदी का अद्श्य रूप से मिलन होता है, इस वजह से प्रयागराज का महत्व और भी बढ़ जाता है। वैसे तो प्रयागराज के अलावा उज्जैन, नासिक और हरिद्वार में अर्धकुंभ मेला हर 6 साल पर आयोजित किया जाता है। लेकिन साल 2025 में होने वाला महाकुंभ मेला का महत्व सबसे ज्यादा होता है। धार्मिक मान्यताओं को अनुसार, महाकुंभ मेला के दौरान प्रयागराज में स्नान व ध्यान करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और व्यक्ति जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है//
🔸13 जनवरी 2025 से शुरू होगा महाकुंभ मेला-:
कुंभ मेला भारत के चार तीर्थ स्थल प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक, उज्जैन में लगता है। साल 2025 में महाकुंभ मेला प्रयागराज में 13 जनवरी को पौष पूर्णिमा के दिन शुरू होगा और 26 फरवरी महाशिवरात्रि व्रत के दिन शाही स्नान के साथ कुंभ मेले का समापन हो जाएगा। प्रयागराज के तट पर गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती नदियां मिलती हैं और इस संगम तट पर स्नान करने को मोक्ष की प्राप्ति होती है। साल 2025 में पौष पूर्णिमा के दिन ही पहला शाही स्नान होगा और सबसे पहले शाही नागा साधु स्नान करने का मौका मिलता है क्योंकि नागा साधुओं को हिंदू धर्म का सेनापति माना जाता है//
🔸इस चार स्थानों पर होता है कुंभ मेले का आयोजन-:
पौराणिक कथाओं के अनुसार, समुद्र मंथन के दौरान जब अमृत कलश निकला था तब उसकी कुछ बूंदे कलश से प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में गिरीं थी इसलिए इन चार स्थानों पर ही कुंभ मेले का आयोजन होता है। महाकुंभ मेला में शाही स्नान का विशेष महत्व होता है और इस दौरान हर अखाड़ा अपने शाही लाव-लश्कर के साथ संगम के तट पर पहुंचता है और सभी नाचते गाते संगम तट पर पहुंचते हैं और स्नान करते हैं//
🔸कब और कैसे आयोजित होता है कुंभ मेला-:
(ज्योतिष सिद्धांत)
प्रयागराज-:
* जब बृहस्पति देव यानी गुरु ग्रह वृषभ राशि में हों, जो अभी इसी राशि में मौजूद हैं और सूर्य ग्रह मकर राशि में हों, जो 14 जनवरी 2025 में सूर्य मकर राशि में गोचर करेंगे, तब कुंभ मेले का आयोजन प्रयागराज में होता है। प्रयागराज में गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती का संगम होता है//
हरिद्वार-:
* जब सूर्य ग्रह मेष राशि में गोचर कर चुके हों और बृहस्पति देव कुंभ राशि में गोचर कर चुके हों, तब कुंभ मेले का आयोजन हरिद्वार में आयोजित किया जाता है। हरिद्वार में गंगा नदी के तट पर मेले का आयोजन होता है//
नासिक-:
* जब सिंह राशि में गुरु ग्रह और सूर्य ग्रह दोनों मौजूद होते हों, तब कुंभ मेले का आयोजन महाराष्ट्र के नासिक में होता है। नासिक में गोदावरी नदी के तट कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है//
उज्जैन-:
* जब सूर्य ग्रह मेष राशि में विराजमान हों और गुरु ग्रह सूर्यदेव की राशि सिंह में विराजमान हों, तब उज्जैन में कुंभ मेले का आयोजन होता है। उज्जैन में शिप्रा नदी के तट पर कुंभ मेले का आयोजन होता है//
🔸कुंभ और महाकुंभ में अंतर-:
कुंभ मेला हर तीन साल में एक एक बार उज्जैन, प्रयागराज, हरिद्वार और नासिक में आयोजित होता है।
अर्ध कुंभ मेला 6 साल में एक बार हरिद्वार और प्रयागराज के तट पर आयोजिक किया जाता है। वहीं पूर्ण कुंभ मेला 12 साल में एक बार आयोजित किया जाता है, जो प्रयागराज में होता है। 12 कुंभ मेला पूर्ण होने पर एक महाकुंभ मेले का आयोजन होता है, इससे पहले महाकुंभ प्रयाराज में साल 2013 में आयोजित हुआ था।
🔸शाही स्नान-:
13 जनवरी 2025- पौष पूर्णिमा
14 जनवरी 2025 - मकर संक्रांति
29 जनवरी 2025- मौनी अमावस्या
3 फरवरी 2025 - वसंत पंचमी
12 फरवरी - माघी पूर्णिमा
26 फरवरी - महाशिवरात्रि पर्व (अंतिम शाही स्नान)
👏🙏👏🙏
(साभार - श्रीमन भीम शास्त्री)
Wednesday, 30 October 2024
दीपावली - कैसे, ऑर क्यू मनाई जाती है....?
दीपावली - कैसे, ऑर क्यू मनाई जाती है....?
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अधिकतर घरों में बच्चे यह दो प्रश्न अवश्य पूछते हैं जब दीपावली भगवान राम के 14 वर्ष के वनवास से अयोध्या लौटने की खुशी में मनाई जाती है तो दीपावली पर लक्ष्मी पूजन क्यों होता है? राम और सीता की पूजा क्यों नही?
दूसरा यह कि दीपावली पर लक्ष्मी जी के साथ गणेश जी की पूजा क्यों होती है, विष्णु भगवान की क्यों नहीं?
दीपावली का उत्सव दो युग, सतयुग और त्रेता युग से जुड़ा हुआ है। सतयुग में समुद्र मंथन से माता लक्ष्मी उस दिन प्रगट हुई थी इसलिए लक्ष्मीजी का पूजन होता है। भगवान राम भी त्रेता युग में इसी दिन अयोध्या लौटे थे तो अयोध्या वासियों ने घर घर दीपमाला जलाकर उनका स्वागत किया था इसलिए इसका नाम दीपावली है।अत: इस पर्व के दो नाम है लक्ष्मी पूजन जो सतयुग से जुड़ा है दूजा दीपावली जो त्रेता युग प्रभु राम और दीपों से जुड़ा है।
लक्ष्मी गणेश का आपस में क्या रिश्ता है
और दीवाली पर इन दोनों की पूजा क्यों होती है?
लक्ष्मी जी सागरमन्थन में मिलीं, भगवान विष्णु ने उनसे विवाह किया और उन्हें सृष्टि की धन और ऐश्वर्य की देवी बनाया गया। लक्ष्मी जी ने धन बाँटने के लिए कुबेर को अपने साथ रखा। कुबेर बड़े ही कंजूस थे, वे धन बाँटते ही नहीं थे।वे खुद धन के भंडारी बन कर बैठ गए। माता लक्ष्मी खिन्न हो गईं, उनकी सन्तानों को कृपा नहीं मिल रही थी। उन्होंने अपनी व्यथा भगवान विष्णु को बताई। भगवान विष्णु ने कहा कि तुम कुबेर के स्थान पर किसी अन्य को धन बाँटने का काम सौंप दो। माँ लक्ष्मी बोली कि यक्षों के राजा कुबेर मेरे परम भक्त हैं उन्हें बुरा लगेगा।
तब भगवान विष्णु ने उन्हें गणेश जी की विशाल बुद्धि को प्रयोग करने की सलाह दी। माँ लक्ष्मी ने गणेश जी को भी कुबेर के साथ बैठा दिया। गणेश जी ठहरे महाबुद्धिमान। वे बोले, माँ, मैं जिसका भी नाम बताऊँगा , उस पर आप कृपा कर देना, कोई किंतु परन्तु नहीं। माँ लक्ष्मी ने हाँ कर दी।अब गणेश जी लोगों के सौभाग्य के विघ्न, रुकावट को दूर कर उनके लिए धनागमन के द्वार खोलने लगे।कुबेर भंडारी देखते रह गए, गणेश जी कुबेर के भंडार का द्वार खोलने वाले बन गए। गणेश जी की भक्तों के प्रति ममता कृपा देख माँ लक्ष्मी ने अपने मानस पुत्र श्रीगणेश को आशीर्वाद दिया कि जहाँ वे अपने पति नारायण के सँग ना हों, वहाँ उनका पुत्रवत गणेश उनके साथ रहें।
दीवाली आती है कार्तिक अमावस्या को, भगवान विष्णु उस समय योगनिद्रा में होते हैं, वे जागते हैं ग्यारह दिन बाद देव उठनी एकादशी को। माँ लक्ष्मी को पृथ्वी भ्रमण करने आना होता है शरद पूर्णिमा से दीवाली के बीच के पन्द्रह दिनों में।इसलिए वे अपने सँग ले आती हैं अपने मानस पुत्र गणेश जी को।
इसलिए दीवाली को लक्ष्मी गणेश की पूजा होती है।
जय श्री राम।
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Wednesday, 21 February 2024
रामायण और रामचरितमानस के 10 बड़े अंतर ।
🙏 ।। जै श्रीराम ।। 🙏
वाल्मीकि कृत रामायण और तुलसीदास कृत रामायण में कई बड़े अंतर हैं।
1. काल का अंतर : महर्षि वाल्मीकि जी ने रामायण की रचना प्रभु श्रीराम के जीवन काल में ही की थी। राम का काल 5114 ईसा पूर्व का माना जाता है, जबकि गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरित मानस को मध्यकाल अर्थात विक्रम संवत संवत् 1631 अंग्रेंजी सन् 1573 में रामचरित मान का लेखन प्रारंभ किया और विक्रम संवत 1633 अर्थात 1575 में पूर्ण किया था। एक शोध के अनुसार रामायण का लिखित रूप 600 ईसा पूर्व का माना जाता है।
2. भाषा का अंतर : महर्षि वाल्मीकि जी ने रामायण को संस्कृत भाषा में लिखा था जबकि तुलसीदासजी ने रामचरित मानस को अवधी में लिखा था। हालांकि रामचरितमानस की भाषा के बारे में विद्वान एकमत नहीं हैं। कोई इसे अवधि मानता है तो कोई भोजपुरी। कुछ लोक मानस की भाषा अवधी और भोजपुरी की मिलीजुली भाषा मानते हैं। मानस की भाषा बुंदेली मानने वालों की संख्या भी कम नहीं है।
3. कथा के आधार में अंतर : महर्षि वाल्मीकि जी ने श्रीराम के जीवन को अपनी आंखों से देखा था। उनकी कथा का आधार खुद राम का जीवन ही था जबकि तुलसीदासजी ने रामायण सहित अन्य कई रामायणों को आधार बनाकर रामचरितमानस को लिखा था। यह भी कहते हैं कि उनकी सहायता हनुमानजी ने की थी।
4.श्लोक और चौपाई : रामायण को संस्कृत काव्य की भाषा में लिखा गया जिसमें सर्ग और श्लोक होते हैं, जबकि रामचरित मानस के दोहो और चौपाइयों की संख्या अधिक है।
रामायण में 24000 हजार श्लोक और 500 सर्ग तथा 7 कांड है।
रामचरित मानस में श्लोक संख्या 27 है, चौपाई संख्या 4608 है, दोहा 1074 है, सोरठा संख्या 207 है और 86 छन्द है।
5. रामायण से ज्यादा प्रचलित है रामचरित मानस : वर्तमान में वाल्मीकि कृत रामायण को पढ़ना और समझना कठिन है क्योंकि उसकी भाषा संस्कृत है जबकि रामचरित मानस को वर्तमान की आम बोलचाल की भाषा में लिखा गया है। जनामनस की इस भाषा के कारण ही रामचरित मानस का पाठ हर जगह प्रचलित है।
6.राम के चरित्र का अंतर : वाल्मीकि कृत रामायण में राम को एक साधारण लेकिन उत्तम पुरुष के रूप में चित्रित किया है, जबकि रामचरित मानस में पात्रों और घटनाओं का अलंकारिक चित्रण किया गया है। इस चरित्र चित्रण में तुलसीदास ने हिन्दी भाषा के अनुप्रास अलंकार, श्रृंगार, शांत और वीररस का प्रयोग मिलेगा। इसमें तुलसीदासजी ने भगवान राम के हर रूप का चित्रण किया गया है। रामचरित मानस में राम ही नहीं रामायण के हर पात्र को महत्व दिया गया है। सभी के चरित्र का खुलासा हुआ है। तुलसीदासजी ने राम के चरित को एक महानायक और महाशक्ति के रूप में चित्रित किया।
7. घटनाओं में अंतर : वाल्मीकि कृत रामायण और गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस में घटनाओं में कुछ अंतर मिलेगा। जैसे श्रीराम और सीता जनकपुरी में बाग में एक दूसरे को देखते हैं तब सीताजी शिवजी से प्रार्थना करती हैं कि श्रीराम से ही उनका विवाह हो यह प्रसंग तुलसीकृत रामचरित मानस में है वाल्मीकि रामायण में नहीं।
धनुष प्रसंग भी तुलसीकृत रामचरित मानस में भिन्न मिलेगा। अंगद के पैर का नहीं हिलना, हनुमानजी का सीना चीरकर रामसीता का चित्र दिखाना, अहिरावण का प्रसंग यह तुलसीकृत रामचरित मानस में ही मिलेगा।
वाल्मीकि रामायण में इंद्र के द्वारा भेजे गए मातलि राम को बताते हैं कि रावण का वध कैसे करना है जबकि तुलसीकृत रामचरित मानस में यह प्रसंग नहीं मिलता।
रावण के वध के लिए ह्रदय में उस समय वार करना जब रावण अति पीड़ा से सीताजी के बारे में विचार न कर रहा हो यह विभीषण द्वारा बताया जाना भी तुलसीकृत रामचरितमानस में है जबकि रामायण में नहीं।
वाल्मीकि रामायण में रावण इत्यादि की तप साधना के बारे में विस्तार से वर्णन है जबकि तुलसीकृत रामायण में नहीं।
विश्वामित्र द्वारा दशरथ से राम को राक्षसों के वध के लिए मांगने का प्रसंग भी तुलसीकृत रामायण में भिन्न मिलेगा।
विश्वामित्रजी से बला और अतिबला नमक विद्या की प्राप्ति का वर्णन भी तुलसीकृत रामायण में नहीं मिलेगा।
ताड़का वध प्रसंग प्रसंग भी थोड़ा अलग है।
कैकेयी द्वारा वरदान का वर्णन भी भिन्न मिलेगा।
जब भरत श्री रामचन्द्रजी को लेने वन में जाते हैं तो वहां राजा जनक भी पधारते हैं। जनक का उल्लेख तुलसीकृत रामायण में नहीं मिलेगा।
इसी तरह और भी कई प्रसंग है जो या तो तुलसीकृत रामचरित मानस में नहीं हैं और है तो भिन्न रूप में।
दरअस, गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरित मानस को लिखने के पहले उत्तर और दक्षिण भारत की सभी रामायणों का अध्ययन किया था। उन्होंने रामचरित मानस में उसी प्रसंग को रखा जो कि महत्वपूर्ण थे। कहते हैं कि रामायण में जो वाल्मीकि नहीं लिख पाए उन्होने वह आध्यात्म रामायण में लिखी थी। तुलसीदानसजी ने कुछ प्रसंग आध्यात्म रामायण से भी उठाएं थे।
8. रामायण और रामचरित मानस का अर्थ : रामायण का अर्थ है राम का मंदिर, राम का घर, राम का आलय या राम का मार्ग, जबकि रामचरित मानस का अर्थ राम के रचित्र का सरोवर। राम के मन का सरोवर। रामररित मानस को राम दर्शन भी कहते हैं। मंदिर में जाने के जो नियम है वही सरोवर में स्नान के नियम है। मंदिर जाने से भी पाप धुल जाते हैं और पवित्र सरोवर में स्नान करने से भी।
9. ऋषि और भक्त की लिखी रामायण : महर्षि वाल्मीकि प्रभु श्रीराम के प्रशंसक जरूर थे लेकिन वे भक्त तो भगवान शिव के थे। उन्होंने शिव की मदद से ही इस रामायण को लिखा था, जबकि तुलसीदासजी प्रभु श्रीराम के अनन्य भक्त थे और उन्होंने स्वप्न में भगवान शिव के आदेश से रामभक्त हनुमान की मदद से रामचरित मानस को लिखा था।
10. कांड : रामचरित मानस में आखिरी से पहले काण्ड को लंकाकाण्ड कहा गया जबकि रामायण में आखिरी से पहले काण्ड को युद्धकाण्ड कहा गया। कहते हैं कि उत्तरकांड को बाद में जोड़ा गया था।
हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
🙏 ।। जै श्रीराम ।। 🙏
(साभार - अनजान, व्हाट्सएप से प्राप्त)
Saturday, 23 December 2023
18 पुराणों का संक्षिप्त परिचय ।
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18 पुराणों का संक्षिप्त परिचय
मित्रों, आज हम सभी अट्ठारह पुराणों के कुछ पहलुओं को संक्षिप्त में समझने की कोशिश करेंगे, पुराण शब्द का अर्थ ही है प्राचीन कथा, पुराण विश्व साहित्य के सबसे प्राचीन ग्रँथ हैं, उन में लिखित ज्ञान और नैतिकता की बातें आज भी प्रासंगिक, अमूल्य तथा मानव सभ्यता की आधारशिला हैं, वेदों की भाषा तथा शैली कठिन है, पुराण उसी ज्ञान के सहज तथा रोचक संस्करण हैं।
उन में जटिल तथ्यों को कथाओं के माध्यम से समझाया गया है, पुराणों का विषय नैतिकता, विचार, भूगोल, खगोल, राजनीति, संस्कृति, सामाजिक परम्परायें, विज्ञान तथा अन्य बहुत से विषय हैं, विशेष तथ्य यह है कि पुराणों में देवी-देवताओं, राजाओं, और ऋषि-मुनियों के साथ साथ जन साधारण की कथाओं का भी उल्लेख किया गया हैं, जिस से पौराणिक काल के सभी पहलूओं का चित्रण मिलता है।
महृर्षि वेदव्यासजी ने अट्ठारह पुराणों का संस्कृत भाषा में संकलन किया है, ब्रह्मदेव, श्री हरि विष्णु भगवान् तथा भगवान् महेश्वर उन पुराणों के मुख्य देव हैं, त्रिमूर्ति के प्रत्येक भगवान स्वरूप को छः पुराण समर्पित किये गये हैं, इन अट्ठारह पुराणों के अतिरिक्त सोलह उप-पुराण भी हैं, किन्तु विषय को सीमित रखने के लिये केवल मुख्य पुराणों का संक्षिप्त परिचय ही दे रहा हूंँ ।
ब्रह्मपुराण सब से प्राचीन है, इस पुराण में दो सौ छियालीस अध्याय तथा चौदह हजार श्र्लोक हैं, इस ग्रंथ में ब्रह्माजी की महानता के अतिरिक्त सृष्टि की उत्पत्ति, गंगा अवतरण तथा रामायण और कृष्णावतार की कथायें भी संकलित हैं, इस ग्रंथ से सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर सिन्धु घाटी सभ्यता तक की कुछ ना कुछ जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
दूसरा हैं पद्मपुराण, जिसमें हैं पचपन हजार श्र्लोक और यह ग्रन्थ पाँच खण्डों में विभाजित किया गया है, जिनके नाम सृष्टिखण्ड, स्वर्गखण्ड, उत्तरखण्ड, भूमिखण्ड तथा पातालखण्ड हैं, इस ग्रंथ में पृथ्वी आकाश, तथा नक्षत्रों की उत्पति के बारे में विस्तार से उल्लेख किया गया है, चार प्रकार से जीवों की उत्पत्ति होती है जिन्हें उदिभज, स्वेदज, अणडज तथा जरायुज की श्रेणी में रखा गया है, यह वर्गीकरण पूर्णतया वैज्ञानिक आधार पर है। भारत के सभी पर्वतों तथा नदियों के बारे में भी विस्तार से वर्णन है, इस पुराण में शकुन्तला दुष्यन्त से ले कर भगवान राम तक के कई पूर्वजों का इतिहास है, शकुन्तला दुष्यन्त के पुत्र भरत के नाम से हमारे देश का नाम जम्बूदीप से भरतखण्ड और उस के बाद भारत पडा था, यह पद्म पुराण हम सभी भाई-बहनों को पढ़ना चाहियें, क्योंकि इस पुराण में हमारे भूगौलिक और आध्यात्मिक वातावरण का विस्तृत वर्णन मिलता है।
तीसरा पुराण हैं विष्णुपुराण, जिसमें छः अँश तथा तेइस हजार श्र्लोक हैं, इस ग्रंथ में भगवान् श्री विष्णुजी, बालक ध्रुवजी, तथा कृष्णावतार की कथायें संकलित हैं, इस के अतिरिक्त सम्राट पृथुजी की कथा भी शामिल है, जिसके कारण हमारी धरती का नाम पृथ्वी पडा था, इस पुराण में सू्र्यवँशीयों तथा चन्द्रवँशीयों राजाओं का सम्पूर्ण इतिहास है। उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।। भारत की राष्ट्रीय पहचान सदियों पुरानी है, जिसका प्रमाण विष्णु पुराण के इस श्लोक में मिलता है, साधारण शब्दों में इस का अर्थ होता है कि वह भूगौलिक क्षेत्र जो उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में सागर से जो घिरा हुआ है, यही भारत देश है तथा उस में निवास करने वाले हम सभी जन भारत देश की ही संतान हैं, भारत देश और भारत वासियों की इस से स्पष्ट पहचान और क्या हो सकती है? विष्णु पुराण वास्तव में ऐक ऐतिहासिक ग्रंथ है।
चौथा पुराण हैं शिवपुराण जिसे आदर से शिव महापुराण भी कहते हैं, इस महापुराण में चौबीस हजार श्र्लोक हैं, तथा यह सात संहिताओं में विभाजित है, इस ग्रंथ में भगवान् शिवजी की महानता तथा उन से सम्बन्धित घटनाओं को दर्शाया गया है, इस ग्रंथ को वायु पुराण भी कहते हैं, इसमें कैलास पर्वत, शिवलिंग तथा रुद्राक्ष का वर्णन और महत्व विस्तार से दर्शाया गया है। सप्ताह के सातों दिनों के नामों की रचना, प्रजापतियों का वर्णन तथा काम पर विजय पाने के सम्बन्ध में विस्तार से वर्णन किया गया है, सप्ताह के दिनों के नाम हमारे सौर मण्डल के ग्रहों पर आधारित हैं, और आज भी लगभग समस्त विश्व में प्रयोग किये जाते हैं, भगवान् शिवजी के भक्तों को श्रद्धा और भक्ति से शिवमहापुराण का नियमित पाठ करना चाहिये, भगवान् शंकरजी बहुत दयालु और भोले है, जो भी इस शीव पुराण को भाव से पढ़ता है उसका कल्याण निश्चित हैं।
पाँचवा है भागवतपुराण, जिसमें अट्ठारह हजार श्र्लोक हैं, तथा बारह स्कंध हैं, इस ग्रंथ में अध्यात्मिक विषयों पर वार्तालाप है, भागवत् पुराण में भक्ति, ज्ञान तथा वैराग्य की महानता को दर्शाया गया है, भगवान् विष्णुजी और भगवान् गोविन्द के अवतार की कथाओं को विसतार से दर्शाया गया हैं, इसके अतिरिक्त महाभारत काल से पूर्व के कई राजाओं, ऋषि मुनियों तथा असुरों की कथायें भी संकलित हैं। इस ग्रंथ में महाभारत युद्ध के पश्चात श्रीकृष्ण का देहत्याग, दूारिका नगरी के जलमग्न होने और यादव वँशियों के नाश तक का विवर्ण भी दिया गया है।
नारदपुराण छठा पुराण हैं जो पच्चीस हजार श्र्लोकों से अलंकृत है, तथा इस के भी भी दो भाग हैं, दोनों भागो में सभी अट्ठारह पुराणों का सार दिया गया है, प्रथम भाग में मन्त्र तथा मृत्यु पश्चात के क्रम और विधान हैं, गंगा अवतरण की कथा भी विस्तार पूर्वक बतायी गयी है, दूसरे भाग में संगीत के सातों स्वरों, सप्तक के मन्द्र, मध्य तथा तार स्थानों, मूर्छनाओं, शुद्ध एवम् कूट तानो और स्वरमण्डल का ज्ञान लिखित है। संगीत पद्धति का यह ज्ञान आज भी भारतीय संगीत का आधार है, जो पाश्चात्य संगीत की चकाचौंध से चकित हो जाते हैं, उनके लिये उल्लेखनीय तथ्य यह है कि नारद पुराण के कई शताब्दी पश्चात तक भी पाश्चात्य संगीत में केवल पाँच स्वर होते थे, तथा संगीत की थ्योरी का विकास शून्य के बराबर था, मूर्छनाओं के आधार पर ही पाश्चात्य संगीत के स्केल बने हैं, सभी संगीत के प्रेमी, जो संगीत को ही अपना केरियर समझ लिया हो, या संगीत और अध्यात्म को साथ में देखने वाले ब्रह्म पुरूष को नारद पुराण को जरूर पढ़ना चाहियें।
साँतवा है मार्कण्डेयपुराण, जो अन्य पुराणों की अपेक्षा सबसे छोटा पुराण है, मार्कण्डेय पुराण में नौ हजार श्र्लोक हैं तथा एक सो सडतीस अध्याय हैं, इस ग्रंथ में सामाजिक न्याय और योग के विषय में ऋषिमार्कण्डेयजी तथा ऋषि जैमिनिजी के मध्य वार्तालाप है; इस के अतिरिक्त भगवती दुर्गाजी तथा भगवान् श्रीक़ृष्ण से जुड़ी हुयी कथायें भी संकलित हैं, सभी ब्रह्म समाज को यह पुराण पढ़नी चाहिये, कम से कम मार्कण्डेयजी ऋषि के वंशज इस पुराण को थोड़ा-थोड़ा करके पढ़ने की कोशिश करनी चाहिये, मार्कण्डेय पुराण के अध्ययन से आध्यात्मिक अक्षय सुख की प्राप्ति होती है।
आठवाँ है अग्निपुराण, अग्नि पुराण में तीन सौ तैयासी अध्याय तथा पन्द्रह हजार श्र्लोक हैं, इस पुराण को भारतीय संस्कृति का ज्ञानकोष या आज की भाषा में विकीपीडिया कह सकते है, इस ग्रंथ में भगवान् मत्स्यावतार का अवतार लेकर पधारें थे, उसका वर्णन है, रामायण तथा महाभारत काल की संक्षिप्त कथायें भी संकलित हैं, इसके अतिरिक्त कई विषयों पर वार्तालाप है जिन में धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद मुख्य हैं, धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद को उप-वेद भी कहा जाता है।
नवमा है भविष्यपुराण, भविष्य पुराण में एक सौ उनतीस अध्याय तथा अट्ठाईस श्र्लोक हैं, इस ग्रंथ में सूर्य देवता का महत्व, वर्ष के बारह महीनों का निर्माण, भारत के सामाजिक, धार्मिक तथा शैक्षिक विधानों और भी कई विषयों पर वार्तालाप है, इस पुराण में साँपों की पहचान, विष तथा विषदंश सम्बन्धी महत्वपूर्ण जानकारी भी दी गयी है, इस भविष्य पुराण की कई कथायें बाईबल की कथाओं से भी मेल खाती हैं, भविष्य पुराण में पुराने राजवँशों के अतिरिक्त भविष्य में आने वाले नन्द वँश, मौर्य वँशों का भी वर्णन है। इस के अतिरिक्त विक्रम बेताल तथा बेताल पच्चीसी की कथाओं का विवरण भी है, भगवान् श्रीसत्य नारायण की कथा भी इसी पुराण से ली गयी है, यह भविष्य पुराण भारतीय इतिहास का महत्वशाली स्त्रोत्र है, जिस पर शोध कार्य करना चाहिये, और इसके उपदेश हर आज के क्षात्र-क्षात्राओं को पढ़ाना चाहिये और प्रथम क्लास से ही, शिक्षा से जुड़े समस्त अध्यापक एवम् अध्यापिका को इस भविष्य पुराण नामक पुराण को अवश्य पढ़ना चाहियें, ताकि आपकी समझ बढे, और समाज में अध्यात्म जागृति लायें।
दसवाँ है ब्रह्मावैवर्तपुराण, जो अट्ठारह हजार श्र्लोकों से अलंकृत है, तथा दो सौ अट्ठारह अध्याय हैं, इस ग्रंथ में ब्रह्माजी, गणेशजी, तुलसी माता, सावित्री माता, लक्ष्मी माता, सरस्वती माता तथा भगवान् श्रीकृष्ण की महानता को दर्शाया गया है, तथा उन से जुड़ी हुई कथायें संकलित हैं, इस पुराण में आयुर्वेद सम्बन्धी ज्ञान भी संकलित है, जो आयुर्वेद और भारतीय परम्परा में निरोगी काया के विषय पर गंभीर है, उसे यह ब्रह्मावैवर्त पुराण आपका पथ प्रदर्शक बनेगा।
अगला ग्यारहवा है लिंगपुराण, इस पावन लिंग पुराण में ग्यारह हजार श्र्लोक और एक सौ तरसठ अध्याय हैं, सृष्टि की उत्पत्ति तथा खगौलिक काल में युग, कल्प की तालिका का वर्णन है, भगवान् सूर्यदेव के सूर्य के वंशजों में राजा अम्बरीषजी हुयें, रामजी इन्हीं राजा अम्बरीषजी के कूल में अवतार हुआ था, राजा अम्बरीषजी की कथा भी इसी पुराण में लिखित है, इस ग्रंथ में अघोर मंत्रों तथा अघोर विद्या के सम्बन्ध में भी उल्लेख किया गया है।
बाहरवां पुराण हैं वराहपुराण, वराह पुराण में दो सौ सत्रह स्कन्ध तथा दस हजार श्र्लोक हैं, इस ग्रंथ में भगवान् श्री हरि के वराह अवतार की कथा, तथा इसके अतिरिक्त भागवत् गीता महात्म्य का भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है, इस पुराण में सृष्टि के विकास, स्वर्ग, पाताल तथा अन्य लोकों का वर्णन भी दिया गया है, श्राद्ध पद्धति, सूर्य के उत्तरायण तथा दक्षिणायन विचरने, अमावस और पूर्णमासी के कारणों का वर्णन है। महत्व की बात यह है कि जो भूगौलिक और खगौलिक तथ्य इस पुराण में संकलित हैं वही तथ्य पाश्चात्य जगत के वैज्ञिानिकों को पंद्रहवी शताब्दी के बाद ही पता चले थे, सभी सनातन धर्म को मानने वाले भाई-बहनों को यह वराह पुराण को अवश्य पढ़ना चाहियें, जो भक्त अपने जीवन में जीते जी स्वर्ग की कल्पना करता है, उसके लिये वराह पुराण अतुल्य है, इसमें स्वर्ग-नरक का भगवान् श्री वेदव्यासजी ने बखूबी वर्णन किया है।
तेहरवां पुराण हैं सकन्दपुराण, सकन्द पुराण सब से विशाल पुराण है, तथा इस पुराण में अक्यासी हजार श्र्लोक और छः खण्ड हैं, सकन्द पुराण में प्राचीन भारत का भूगौलिक वर्णन है, जिस में सत्ताईस नक्षत्रों, अट्ठारह नदियों, अरुणाचल प्रदेश का सौंदर्य, भारत में स्थित भगवान् भोलेनाथ के बारह ज्योतिर्लिंगों, तथा गंगा अवतरण के आख्यान शामिल हैं, इसी पुराण में स्याहाद्री पर्वत श्रंखला तथा कन्या कुमारी मन्दिर का उल्लेख भी किया गया है, इसी पुराण में सोमदेव, तारा तथा उन के पुत्र बुद्ध ग्रह की उत्पत्ति की अलंकारमयी कथा भी है।
चौदहवां पुराण है वामनपुराण, वामन पुराण में निन्यानवें अध्याय तथा दस हजार श्र्लोक हैं, एवम् दो खण्ड हैं, इस पुराण का केवल प्रथम खण्ड ही उप्लब्द्ध है, इस पुराण में भगवान् के वामन अवतार की कथा विस्तार से कही गयी हैं, जो भरूचकच्छ (गुजरात) में हुआ था, इस के अतिरिक्त इस ग्रंथ में भी सृष्टि, जम्बूदूीप तथा अन्य सात दूीपों की उत्पत्ति, पृथ्वी की भूगौलिक स्थिति, महत्वशाली पर्वतों, नदियों तथा भारत के खण्डों का जिक्र है।
पन्द्रहवां पुराण है कुर्मपुराण, कुर्म पुराण में अट्ठारह हजार श्र्लोक तथा चार खण्ड हैं, इस पुराण में चारों वेदों का सार संक्षिप्त रूप में दिया गया है, कुर्म पुराण में कुर्म अवतार से सम्बन्धित सागर मंथन की कथा विस्तार पूर्वक लिखी गयी है, इस में ब्रह्माजी, शिवजी, विष्णुजी, पृथ्वी माता, गंगा मैया की उत्पत्ति, चारों युगों के बारे में सटीक जानकारी, मानव जीवन के चार आश्रम धर्मों, तथा चन्द्रवँशी राजाओं के बारे में भी विस्तार से वर्णन है।
सोलहवां पुराण है मतस्यपुराण, मतस्य पुराण में दो सौ नब्बे अध्याय तथा चौदह हजार श्र्लोक हैं, इस ग्रंथ में मतस्य अवतार की कथा का विस्तरित उल्लेख किया गया है, सृष्टि की उत्पत्ति और हमारे सौर मण्डल के सभी ग्रहों, चारों युगों तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास वर्णित है, कच, देवयानी, शर्मिष्ठा तथा राजा ययाति की रोचक कथा भी इसी मतस्य पुराण में है, सामाजिक विषयों के जानकारी के इच्छुक भाई-बहनों को मतस्य पुराण को जरूर पढ़ना चाहियें।
सत्रहवां पुराण है गरुड़पुराण, गरुड़ पुराण में दो सौ उनअस्सी अध्याय तथा अट्ठारह हजार श्र्लोक हैं; इस ग्रंथ में मृत्यु पश्चात की घटनाओं, प्रेत लोक, यम लोक, नरक तथा चौरासी लाख योनियों के नरक स्वरुपी जीवन के बारे में विस्तार से बताया गया है, इस पुराण में कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का वर्णन भी है, साधारण लोग इस ग्रंथ को पढ़ने से हिचकिचाते हैं, क्योंकि? इस ग्रंथ को किसी सम्वन्धी या परिचित की मृत्यु होने के पश्चात ही पढ़वाया जाता है। वास्तव में इस पुराण में मृत्यु पश्चात पुनर्जन्म होने पर गर्भ में स्थित भ्रूण की वैज्ञानिक अवस्था सांकेतिक रूप से बखान की गयी है, जिसे वैतरणी नदी की संज्ञा दी गयी है, उस समय तक भ्रूण के विकास के बारे में कोई भी वैज्ञानिक जानकारी नहीं थी, तब हमारे इसी गरूड पुराण ने विज्ञान और वैज्ञानिकों को दिशा दी, इस पुराण को पढ़ कर कोई भी मानव नरक में जाने से बच सकता है।
अट्ठारहवां और अंतिम पुराण हैं ब्रह्माण्डपुराण, ब्रह्माण्ड पुराण में बारह हजार श्र्लोक तथा पू्र्व, मध्य और उत्तर तीन भाग हैं, मान्यता है कि अध्यात्म रामायण पहले ब्रह्माण्ड पुराण का ही एक अंश थी जो अभी एक प्रथक ग्रंथ है, इस पुराण में ब्रह्माण्ड में स्थित ग्रहों के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है, कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास भी संकलित है, सृष्टि की उत्पत्ति के समय से ले कर अभी तक सात मनोवन्तर (काल) बीत चुके हैं जिन का विस्तरित वर्णन इस ग्रंथ में किया गया है।
भगवान् श्री परशुरामजी की कथा भी इस पुराण में दी गयी है, इस ग्रँथ को विश्व का प्रथम खगोल शास्त्र कह सकते है, भारत के ऋषि इस पुराण के ज्ञान को पूरे ब्रह्माण्ड तक ले कर गये थे, जिसके प्रमाण हमें मिलते रहे है, हिन्दू पौराणिक इतिहास की तरह अन्य देशों में भी महामानवों, दैत्यों, देवों, राजाओं तथा साधारण नागरिकों की कथायें प्रचिलित हैं, कईयों के नाम उच्चारण तथा भाषाओं की विभिन्नता के कारण बिगड़ भी चुके हैं जैसे कि हरिकुल ईश से हरकुलिस, कश्यप सागर से केस्पियन सी, तथा शम्भूसिहं से शिन बू सिन आदि बन गये।
तक्षक के नाम से तक्षशिला और तक्षकखण्ड से ताशकन्द बन गये, यह विवरण अवश्य ही किसी ना किसी ऐतिहासिक घटना कई ओर संकेत करते हैं, प्राचीन काल में इतिहास, आख्यान, संहिता तथा पुराण को ऐक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता था, इतिहास लिखने का कोई रिवाज नहीं था, राजाओ नें कल्पना शक्तियों से भी अपनी वंशावलियों को सूर्य और चन्द्र वंशों से जोडा है, इस कारण पौराणिक कथायें इतिहास, साहित्य तथा दंत कथाओं का मिश्रण हैं।
रामायण, महाभारत तथा पुराण हमारे प्राचीन इतिहास के बहुमूल्य स्त्रोत्र हैं, जिनको केवल साहित्य समझ कर अछूता छोड़ दिया गया है, इतिहास की विक्षप्त श्रंखलाओं को पुनः जोड़ने के लिये हमें पुराणों तथा महाकाव्यों पर शोध करना होगा, पढ़े-लिखे आज की युवा पीढ़ी को यह आव्हान है, जो छुट गया उसे जाने दो, जो अध्यात्म विरासत बची है, उसे समझने की कोशिश करों, पुराणों में अंकीत उपदेशों को अपने जीवन में आत्मसात करें।
साभार - वेद दर्शन , शास्त्र ज्ञान ।।
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