Monday 16 March 2020

*श्रावण मास में 12 ज्योतिर्लिंगों की पूजा का महत्व*

ॐ नम: शिवाय।


सनातन परंपरा में भगवान शिव से जुड़े 12 प्रमुख ज्योतिर्लिंगों की साधना-आराधना का अत्यंत महत्व है। पौराणिक मान्यता के अनुसार भगवान शिवजी जहां-जहां स्वयं प्रगट हुए, उन्हीं 12 स्थानों पर स्थित शिवलिंगों को पवित्र ज्योतिर्लिंगों के रूप में पूजा जाता है। इन 12 ज्योतिर्लिंगों के न सिर्फ दर्शन करने पर शिव भक्त को विशेष फल की प्राप्ति होती है बल्कि इनका महज प्रतिदिन नाम लेने मात्र से जीवन के सभी दु:ख दूर हो जाते हैं। इन द्वादश ज्योतिर्लिंगों की पूजा सभी तरह के लौकिक तथा परलौकिक सुख देने वाली है।

*सोमनाथ ज्योतिर्लिंग*
गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में स्थित सोमनाथ ज्योतिर्लिंग पृथ्वी का पहला ज्योतिर्लिंग माना जाता है। शिवपुराण के अनुसार जब चंद्रमा को दक्ष प्रजापति ने क्षय रोग होने का श्राप दे दिया था, तब चंद्रदेव इसी स्थान पर तपस्या करके श्राप से मुक्त हुए थे। मान्यता है कि शिव के इस पावन धाम पर पूजा करने से साधक के क्षय, कोढ़ आदि रोग दूर हो जाते हैं। यहां पर देवताओं द्वारा बनवाया गया एक पवित्र कुण्ड भी है, जिसे सोमकुण्ड या पापनाशक - तीर्थ कहते हैं।

*मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग*
आन्ध्र प्रदेश में कृष्णा नदी के तट पर श्रीशैल नाम के पर्वत पर स्थित इस ज्योतिर्लिंग का अत्यंत महत्व है। मान्यता है कि इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने मात्र से ही व्यक्ति को उसके सभी पापों से मुक्ति मिलती है। शास्त्रों में इस पावन शिव धाम की बड़ी महिमा बतायी गई है। महाभारत के अनुसार श्रीशैल पर्वत पर भगवान शिव का पूजन करने से अश्वमेध यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है। शिव भक्तों का मानना है कि श्रीशैल के शिखर के दर्शन मात्र करने से ही साधक के सभी प्रकार के कष्ट दूर हो जाते हैं। 

*महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग*
मध्य प्रदेश स्थित सप्तपुरियों में से एक प्राचीन उज्जैन नगरी में स्थित महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की विशेषता है कि ये एकमात्र दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग है। जिनकी साधना-आराधना से जीवन से जुड़ी सभी प्रकार के भय दूर होते हैं। मान्यता है कि यहां पर शिव की साधना करने वाले साधक का काल भी कुछ नहीं कर पाता। यहां प्रतिदिन सुबह की जाने वाली भस्मारती विश्व भर में प्रसिद्ध है। 

*ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग*
मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में शिव का यह पावन धाम स्थित है। इंदौर शहर के पास जिस स्थान पर यह ज्योतिर्लिंग है, उस स्थान पर नर्मदा नदी बहती है और पहाड़ी के चारों ओर नदी बहने से यहां ॐ का आकार बनता है। मान्यता है कि व्यक्ति इस पावन तीर्थ में पहुंचकर अन्नदान, तप, पूजा आदि करता है, वह सभी सुख को भोगते हुए शिवलोक में स्थान प्राप्त होता है।

*केदारनाथ ज्योतिर्लिंग*
केदारनाथ स्थित ज्योतिर्लिंग उत्तराखंड में हिमालय की केदार नामक चोटी पर स्थित है। बाबा केदारनाथ का मंदिर बद्रीनाथ के मार्ग में स्थित है। केदारनाथ समुद्र तल से 3584 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। पुराणों में इस ज्योतिर्लिंग की महिमा का विस्तार से वर्णन करते हुए इसे शिव का प्रिय स्थान बताया गया है। मान्यता है कि कैलाश की तरह भगवान शिव ने केदारनाथ को अत्यधिक महत्व दिया है। 

*भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग*
भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र के पूणे जिले में सह्याद्रि नामक पर्वत पर स्थित है। मान्यता है कि भगवान शंकर ने त्रिपुरासुर का वध करने के बाद उसी स्थान पर विश्राम किया था। जिस सह्याद्रि पर्वत पर भगवान भीमशंकर विराजमान हैं, उसी से भीमा नदी निकल कर प्रवाहित होती है। 

*बाबा विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग*
बाबा विश्वनाथ का यह ज्योतिर्लिंग उत्तर प्रदेश की धार्मिक राजधानी माने जाने वाली वाराणसी शहर में स्थित है। मान्यता है कि प्रलय आने पर जब सारी धरती के डूब जाने के बावजूद यह स्थान बना रहता है क्योंकि इसकी रक्षा स्वयं भगवान शिव करते हैं। मान्यता के अनुसार प्रलय के समय भगवान शिव इस स्थान को अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं। 

*त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग*
देश के जिन चार प्रमुख स्थानों में कुंभ लगता है, उनमें से एक महाराष्ट्र के नासिक जिले में स्थित है भगवान शिव का यह पावन धाम। त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग के निकट ब्रह्मागिरि नाम का पर्वत है। इसी पर्वत से गोदावरी नदी शुरू होती है। भगवान शिव का एक नाम त्र्यंबकेश्वर भी है। कहा जाता है कि भगवान शिव को गौतम ऋषि और गोदावरी नदी के आग्रह पर यहां ज्योतिर्लिंग के रूप में रहना पड़ा था।

*वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग*
पृथ्वी पर मौजूद 12 ज्योतिर्लिंगों में श्री वैद्यनाथ धाम का 9वां स्थान है। भगवान श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का मन्दिर जिस स्थान पर है, उसे वैद्यनाथ या बैजनाथ धाम कहा जाता है। यह स्थान झारखण्ड प्रान्त के संथाल परगना में जसीडीह रेलवे स्टेशन के करीब स्थित है। पुराणों में शिव के इस पावन धाम को चिताभूमि कहा गया है। श्रावण मास में यहां लाखों की संख्या में शिवभक्त जल चढ़ाने के लिए पहुंचते हैं। 

*नागेश्वर ज्योतिर्लिंग*
गुजरात के बड़ौदा क्षेत्र में गोमती द्वारका के करीब स्थित है शिव साधकों का अत्यंत पूजनीय नागेश्वर ज्योतिर्लिंग। पुराणों में भगवान शिव को नागों का देवता बताया गया है और नागेश्वर का अर्थ होता है नागों का ईश्वर। द्वारका पुरी से नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की दूरी 17 मील की है। इस ज्योतिर्लिंग की महिमा में कहा गया है कि जो व्यक्ति पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ यहां दर्शनों के लिए आता है उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। 

*रामेश्वरम् ज्योतिर्लिंग*
भगवान शिव का यह ग्यारहवां ज्योतिर्लिंग तमिलनाडु के रामनाथम् नामक स्थान में स्थित है। रामेश्वरतीर्थ को ही सेतुबन्ध तीर्थ कहा जाता है। भगवान शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक शिव का पावन धाम होने के साथ-साथ यह हिंदुओं के चार प्रमुख धामों में से एक स्थान है। मान्यता है कि इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना स्वयं भगवान श्रीराम ने की थी। भगवान श्री राम द्वारा स्थापित किए जाने के कारण इस ज्योतिर्लिंग को भगवान राम का नाम रामेश्वरम् दिया गया है।

*घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग*
घृष्णेश्वर महादेव का प्रसिद्ध मंदिर महाराष्ट्र के संभाजीनगर के समीप दौलताबाद के पास स्थित है। इसे घृष्णेश्वर के नाम से भी जाना जाता है। भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से यह अंतिम ज्योतिर्लिंग है। इस स्थान को ‘शिवालय’ भी कहा जाता है।

ॐ नम: शिवाय। 
🙏🏻🙏🏻

Monday 9 March 2020

होली का वास्तविक स्वरुप

इस पर्व का प्राचीनतम नाम वासन्ती नव सस्येष्टि है अर्थात् बसन्त ऋतु के नये अनाजों से किया हुआ यज्ञ, परन्तु होली होलक का अपभ्रंश है।

यथा;
तृणाग्निं भ्रष्टार्थ पक्वशमी धान्य होलक: (शब्द कल्पद्रुम कोष) 
अर्धपक्वशमी धान्यैस्तृण भ्रष्टैश्च होलक: 
होलकोऽल्पानिलो मेद: 
कफ दोष श्रमापह। (भाव प्रकाश)

अर्थात् :- तिनके की अग्नि में भुने हुए (अधपके) शमो - धान्य (फली वाले अन्न) को होलक कहते हैं। यह होलक वात-पित्त-कफ तथा श्रम के दोषों का शमन करता है।

होलिका  - किसी भी अनाज के ऊपरी पर्त को होलिका कहते हैं - जैसे - चने का पट पर (पर्त) मटर का पट पर (पर्त), गेहूँ, जौ का गिद्दी से ऊपर वाला पर्त। इसी प्रकार चना, मटर, गेहूँ, जौ की गिदी को प्रह्लाद कहते हैं। होलिका को माता इसलिए कहते हैं कि वह चनादि का निर्माण करती (माता निर्माता भवति) यदि यह पर्त पर (होलिका) न हो तो चना, मटर रुपी प्रह्लाद का जन्म नहीं हो सकता। जब चना, मटर, गेहूँ व जौ भुनते हैं तो वह पट पर या गेहूँ, जौ की ऊपरी खोल पहले जलता है, इस प्रकार प्रह्लाद बच जाता है। उस समय प्रसन्नता से जय घोष करते हैं कि होलिका माता की जय अर्थात् होलिका रुपी पट पर (पर्त) ने अपने को देकर प्रह्लाद (चना - मटर) को बचा लिया।

अधजले अन्न को होलक कहते हैं। इसी कारण इस पर्व का नाम होलिकोत्सव है और बसन्त ऋतुओं में नये अन्न से यज्ञ (येष्ट) करते हैं। इसलिए इस पर्व का नाम वासन्ती नव सस्येष्टि है। यथा - वासन्तो = वसन्त ऋतु। नव = नये। येष्टि = यज्ञ। इसका दूसरा नाम नव सम्वत्सर है। 

मानव सृष्टि के आदि से आर्यों की यह परम्परा रही है कि वह नवान्न को सर्वप्रथम अग्निदेव पितरों को समर्पित करते थे। तत्पश्चात् स्वयं भोग करते थे। हमारा कृषि वर्ग दो भागों में बँटा है -(1) वैशाखी, (2) कार्तिकी। 
इसी को क्रमश: वासन्ती और शारदीय एवं रबी और खरीफ की फसल कहते हैं।
फाल्गुन पूर्णमासी वासन्ती फसल का आरम्भ है। अब तक चना, मटर, अरहर व जौ आदि अनेक नवान्न पक चुके होते हैं। अत: परम्परानुसार पितरों देवों को समर्पित करें, कैसे सम्भव है। तो कहा गया है :–

अग्निवै देवानाम मुखं 

अर्थात् अग्नि देवों–पितरों का मुख है जो अन्नादि शाकल्यादि आग में डाला जायेगा। वह सूक्ष्म होकर पितरों देवों को प्राप्त होगा।

हमारे यहाँ आर्यों में चातुर्य्यमास यज्ञ की परम्परा है। वेदज्ञों ने चातुर्य्यमास यज्ञ को वर्ष में तीन समय निश्चित किये हैं - (1) आषाढ़ मास, (2) कार्तिक मास (दीपावली) (3) फाल्गुन मास (होली) यथा :--

फाल्गुन्या पौर्णामास्यां चातुर्मास्यानि प्रयुञ्जीत मुखं वा एतत सम्वत् सरस्य यत् फाल्गुनी पौर्णमासी आषाढ़ी पौर्णमासी

अर्थात् फाल्गुनी पौर्णमासी, आषाढ़ी पौर्णमासी और कार्तिकी पौर्णमासी को जो यज्ञ किये जाते हैं वे चातुर्यमास कहे जाते हैं आग्रहाण या नव संस्येष्टि

समीक्षा - आप प्रतिवर्ष होली जलाते हो। उसमें आखत डालते हो जो आखत हैं - वे अक्षत का अपभ्रंश रुप हैं, अक्षत चावलों को कहते हैं और अवधि भाषा में आखत को आहुति कहते हैं। कुछ भी हो चाहे आहुति हो, चाहे चावल हों, यह सब यज्ञ की प्रक्रिया है। आप जो परिक्रमा देते हैं यह भी यज्ञ की प्रक्रिया है। क्योंकि आहुति या परिक्रमा सब यज्ञ की प्रक्रिया है, सब यज्ञ में ही होती है। आपकी इस प्रक्रिया से सिद्ध हुआ कि यहाँ पर प्रतिवर्ष सामूहिक यज्ञ की परम्परा रही होगी I इस प्रकार चारों वर्ण परस्पर मिलकर इस होली रुपी विशाल यज्ञ को सम्पन्न करते थे। आप जो गुलरियाँ बनाकर अपने-अपने घरों में होली से अग्नि लेकर उन्हें जलाते हो। यह प्रक्रिया छोटे-छोटे हवनों की है। सामूहिक बड़े यज्ञ से अग्नि ले जाकर अपने-अपने घरों में हवन करते थे। बाहरी वायु शुद्धि के लिए विशाल सामूहिक यज्ञ होते थे और घर की वायु शुद्धि के लिए छोटे-छोटे हवन करते थे दूसरा कारण यह भी था।

ऋतु सन्धिषु रोगा जायन्ते  - अर्थात् ऋतुओं के मिलने पर रोग उत्पन्न होते हैं, उनके निवारण के लिए यह यज्ञ किये जाते थे। यह होली हेमन्त और बसन्त ऋतु का योग है। रोग निवारण के लिए यज्ञ ही सर्वोत्तम साधन है। अब होली प्राचीनतम वैदिक परम्परा के आधार पर समझ गये होंगे कि होली नवान्नेष्टि वर्ष का प्रतीक है।

पौराणिक मत में कथा इस प्रकार है :- होलिका हिरण्यकश्यपु नाम के राक्षस की बहिन थी। उसे यह वरदान था कि वह आग में नहीं जलेगी। हिरण्यकश्यपु का प्रह्लाद नाम का आस्तिक पुत्र विष्णु की पूजा करता था। वह उसको कहता था कि तू विष्णु को न पूजकर मेरी पूजा किया कर। जब वह नहीं माना तो हिरण्यकश्यपु ने होलिका को आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को आग में लेकर बैठे। वह प्रह्लाद को आग में गोद में लेकर बैठ गई, होलिका जल गई और प्रह्लाद बच गया। होलिका की स्मृति में होली का त्यौहार मनाया जाता है l